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मूकमाटी-मीमांसा :: 331
जीवनशैली कवि के साधक मन की विशेषता है । वे मनुष्य को सम्भावनाओं की आहट पहचानने का आग्रह करते हैं।
मुनिवर कवि की चेतना प्रबुद्ध है इसीलिए वे डंके की चोट पर कह सकते हैं कि पापभरी प्रार्थना से प्रभु कदापि प्रसन्न नहीं होते। पाप को त्याग देने से ही वह पावन प्रसन्न होता है । इसी परिप्रेक्ष्य में कला का जीवन में स्थान एवं महत्त्व समझाते हुए वे कहते हैं कि कला से मनुष्य का जीवन सुख, शान्ति, सम्पन्नता से भर जाता है। फिर वह चाहे कला का कोई भी रूप क्यों न हो । कला का अर्थ उन्होंने यों विश्लेषित किया है :
" 'क' यानी आत्मा-सुख है/'ला' यानी लाना-देता है/कोई भी कला हो
कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है।” (पृ. ३९६) आतंकवाद के विरोध में कवि की वज्रलेखनी जब ग़रज़ उठती है तभी वे आतंकवाद का अन्त और अनन्तवाद का श्रीगणेश की बात करते हैं । मात्र समाजवाद, समाजवाद चिल्लाने से व्यक्ति समाजवादी नहीं बन सकता, यह समझाते हुए कवि-प्रतिभा समाजवाद की नई व्याख्या करते हुए इन पंक्तियों का सृजन करती है :
"समाज का अर्थ होता है समूह/और/समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है। कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि/प्रचार-प्रसार से दूर
प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है।” (पृ. ४६१) जीवन अनन्त सम्भावनाओं से भरपूर है और उस अर्थ में प्रस्तुत कविता भी अनन्त सम्भावनाओं से ओतप्रोत है। आलोचकीय दृष्टि जब इस कविता के महाकाव्य होने की चर्चा करेगी तो शुष्क-नियमों के आधार पर इसे महाकाव्य नहीं मान पाएगी । यह कविता नियमों को उत्क्रान्त करते हुए जीती है। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः' इस न्याय से भी कवि स्वतन्त्रचेता, सर्वथा मुक्त और नि:संग होता है। उस कविता को रचने वाली क़लम तो अग्नि-परीक्षा दे कुन्दनसी चमचमाती हुई है । जहाँ तक कविता' का प्रश्न है वहाँ इस कविता के अनेकानेक उद्धरण प्रस्तुत कर उसकी महिमा को अचूक शब्दों में अभिव्यक्ति दी जा सकती है। दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
"रति-पति-प्रतिकूला-मतिवाली/पति-मति-अनुकूला गतिवाली इससे पिछली, बिचली बदली ने/पलाश की हँसी-सी साड़ी पहनी गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे/लाल पगतली वाली लाली-रची पद्मिनी की शोभा सकुचाती है जिससे,/इस बदली की साड़ी की आभा वह
जहाँ-जहाँ गई चली/फिसली-फिसली, बदली वहाँ की आभा भी।"(पृ.१९९-२००) एक उदाहरण और :
"मलयाचल का चन्दन/और/चेतोहारिणी/चाँद की चमकती चाँदनी भी
चित्त से चली गई उछली-सी कहीं/मेरी स्पर्शा पर आज !" (पृ. ८५) और यह पढ़िए एक उद्धरण :
"रजत-सिंहासन पर/रजविरहित प्रभु की रजतप्रतिमा अपराजिता विराजित है।” (पृ. ३१२) ।