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'मूकमाटी' की संवेदना
डॉ. मृत्युंजय उपाध्याय नलिन विलोचन शर्मा ने 'उपन्यास साहित्य' शीर्षक लेख में लिखा है : “समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है और जटिलता और संघर्ष उपन्यासों में।" विज्ञान की उपलब्धियों एवं सभ्यता के विकास ने जटिलताओं एवं संघर्षों को बढ़ावा दिया । फलत: उपन्यास, कहानी आदि का अधिक विकास हुआ। महाकाव्य अपेक्षाकृत कम लिखे गए । जीवन नाना समस्याओं से आक्रान्त होता रहा । जन-जन के प्राण संकट में रहे। परिस्थिति की इस विषमता को ध्यान में रख कर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अनुभव किया कि कविता ही एक मात्र माध्यम है, जिसके द्वारा जन-जन की चेतना का जागरण हो सकता है । द्वन्द्व, सन्देह, आशंका की कुहेलिका फट सकती है । सत्य से साक्षात्कार हो सकता है । कविता जन-जन की आँखें खोल सकती है। उसे अन्धकार से प्रकाश का मार्ग बता सकती है। उसकी जिजीविषा को उजागर कर सकती है । इसीलिए विराट्, व्यापक एवं बहुमुखी उद्देश्य के साथ कवि ने 'मूकमाटी' महाकाव्य का प्रणयन किया है।
__ 'मकमाटी' की संवेदना को बाँधना. समेटना सागर को बाँधना है, उसके जल का माप करना है। इसलिए प्रयास यह किया जा रहा है कि केन्द्रीय तत्त्व की ओर, महाभाव की ओर, विराट् चेतना की ओर संकेत भर किया जा सके। मूक माटी महाकाव्य की नायिका है। यह एक प्रतीक है साधना, अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, योग समाधि की सम्पूर्ण प्रक्रिया की, जिसके अन्तर्गत एक जीव शनैः - शनै: अपने अहम् को मिटाता, गलाता, इदम् में पर्यवसित हो जाता है । तद्रूप हो जाता है । एकमेक हो जाता है । माटी के धरती से उखड़ने से लेकर मंगल घट बनने और जल से गुरु के पद प्रक्षालन तक की यात्रा का अध्ययन व्यंजना में किया जाए, तो लगेगा कि अध्यात्म एवं दर्शन का यहाँ अप्रतिम निदर्शन हुआ है । माटी धरती माँ से निवेदन करती है कि कैसे हो उसका उद्धार, ऊर्वीकरण । गोस्वामी तुलसीदास मानते हैं कि आत्म-साक्षात्कार की ज्योति जलते ही जीव तीनों भ्रमों से मुक्त हो जाता है : “तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम जो आपनु पहिचानै ।” मिट्टी जानती है- वह पतित है । यही उसके उत्थान का रहस्य है :
"तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है लघु-तम माना है/यह अपूर्व घटना/इसलिए है कि
तूने/निश्चित रूप से/प्रभु को,/गुरु-तम को/पहचाना है।" (पृ. ९) और इसके साथ ही कवि साधना की सारी प्रक्रिया को परत-दर-परत खोलते जाते हैं। प्रारम्भ में आस्था भले ही हो स्थायी, दृढ़, दृढ़तरा, परन्तु प्राथमिक दशा में स्खलन की सम्भावना रहती है । निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन स्वाभाविक है, उसी तरह जैसे वर्षों से रोटी बनाने वाले पाकशास्त्री की पहली रोटी करड़ी' बनती है। !
“निरन्तर अभ्यास के बाद भी/स्खलन सम्भव है;/प्रतिदिन-बरसों से रोटी बनाता-खाता आया हो वह/तथापि पाक-शास्त्री की पहली रोटी/करड़ी क्यों बनती, बेटा !
इसीलिए सुनो !/आयास से डरना नहीं/आलस्य करना नहीं !" (पृ. ११) कुम्भकार को नायक माना जाए और माटी को नायिका, तो यह लौकिक जीवन के रोमांस से मेल नहीं खाता है। अधूरा-अधूरा रह जाता है । अध्यात्म के क्षेत्र में दोनों की पारस्परिकता और अनिवार्यता सहज स्वीकृत है।