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मूकमाटी-मीमांसा :: xxxi
पूर्ववर्ती अनेक रचनाओं से गुज़रने के बाद हुई है। संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रायः उत्कृष्ट रचनाएँ श्रमण-शतकम्'(१९७४), 'भावना-शतकम्' (१९७५), निरञ्जन-शतकम्' (१९७७), परीषहजय शतकम्' (१९८२), 'सुनीति शतकम्' (१९८३) एवं इन्हीं पाँचों शतकों का उसी कालावधि में हिन्दी पद्यानुवाद तथा 'शारदास्तुतिरियम्' (१९७१)- पंचशती' संज्ञक कृति में संकलित हैं। इन सबका विषय धार्मिक और आध्यात्मिक है, परन्तु अभिव्यक्ति शैली काव्योचित है । अर्थालंकारों से काव्योचित रमणीयता आती है, पर शब्दालंकारों से वह रमणीयता नहीं आती। इतना अवश्य है कि शब्दालंकारविशेषकर यमक, अनुप्रास तथा मुरज बन्धादि चित्र-का सन्निवेश प्रयोक्ता और ग्रहीता दोनों के लिए दुरूह है । महाराजश्री ने इस चुनौती का निर्वाह किया है। अर्थगत रमणीयता की दृष्टि से इसे अधम काव्य की संज्ञा अवश्य दी गई है, परन्तु इसमें रचना करने वाला जानता है कि उसका निर्वाह कितना श्रमसाध्य है । इन शतकों में सुनीति-शतकम्' की भाषा प्रांजल है पर शेष शतकों की दुरूह । शब्दक्रीड़ा की यह प्रवृत्ति इतिहास में प्रत्येक महाकवि में विद्यमान है - चाहे वह वाल्मीकि हों या कालिदास । माघ और भारवि की तो बात ही भिन्न है। परवर्ती रचनाओं में तो पाण्डित्य प्रदर्शन एक प्रवृत्ति ही बन गई । महाराजश्री की इन रचनाओं का समाकलन स्तोत्रकाव्यों की शतक परम्परा में किया जा सकता है। वैसे इन रचनाओं में स्तोत्र का ही स्वर नहीं है, विभिन्न और भी संज्ञानुरूप धार्मिक, आध्यात्मिक तथा नीतिपरक विषय भी हैं। (ङ) हिन्दी में कवित्व का उन्मेष और विकास
____ हिन्दी में रचनाओं का निर्माण अस्सी ईस्वी के दशक में आरम्भ होता है । आरम्भ होने के बाद फिर कभी विच्छिन्न नहीं हुआ, विपरीत इसके कि समृद्ध ही होता गया । इस क्रम में नर्मदा का नरम कंकर' सम्भवत: पहला काव्य संकलन है। यों तो हिन्दी में रचनाएँ पहले से ही प्रकीर्णक रूप में होती आ रही थीं, पर संकलन के रूप में यह पहला प्रयास है। इसके बाद के अधिकांश संकलन'८४ में या उसके बाद प्रकाश में आए हैं। इन संकलनों से गुज़र जाने के बाद 'मूकमाटी' के आविर्भाव के अनेक सूत्र-संकेत मिल जाते हैं। ऐसे संकलनों में उक्त संकलन के अतिरिक्त 'तोता क्यों रोता? 'डूबो मत, लगाओ डुबकी' तथा 'चेतना के गहराव में - का विशेष महत्त्व है। विशेष महत्त्व इसलिए है कि एक तो ये सभी मुक्तछन्द में निबद्ध हैं अर्थात् इन रचनाओं में महाराजश्री का हाथ मुक्तछन्द में मँज चुका है । दूसरे, इन रचनाओं से इस सवाल का जवाब भी मिल जाता है कि आलोच्य महाकाव्य का विषय 'माटी' जैसी उपेक्षित वस्तु को क्यों बनाया गया ? यों तो हिन्दी काव्य परम्परा में 'माटी' का यशोगान और उसके साथ कुम्भकार' का सम्बन्ध पहले से ही मिलता है। उदाहरण के लिए कविवर हरिवंशराय बच्चन की ही निम्नलिखित पंक्तियाँ ली जा सकती हैं :
“हे कुम्भकार, मेरी मिट्टी को/और न अब हैरान करो।" (च) 'मूकमाटी' की भूमिका में उपयोगी कण
___ महाराजश्री की रचनाओं में भी इसके संकेत विद्यमान हैं। नर्मदा के नरम कंकर पर ही उनकी दृष्टि क्यों गई ? कारण क्या है ? असल में लगता है कि वह चूँकि स्वयम् बनने की प्रक्रिया में हैं, चलते जा रहे हैं : ब्रह्मचारी से क्षुल्लक, ऐलक, मुनि और आचार्य बनने के क्रम में हैं, भले ही ये ब्रह्मचारी से सीधे ही मुनि पद और बाद में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। अत: उनका ध्यान सम्भावनाओं से मण्डित सामान्य पदार्थ की ओर ही ज़्यादा जाता है। नर्मदा के कंकर बनने के क्रम में कितना संघर्ष झेलते हैं, इस संघर्ष को झेलकर उसमें शालिग्राम का सुघर रूप उभरता है, जो पूज्य बन जाता है । मिट्टी में क्या कुछ बनने की सम्भावना नहीं है ? शर्त इतनी ही है कि सधा हुआ शिल्पी मिल जाय । क्रमागत महाकाव्य शलाकापुरुषों का यशोगान करते हैं, धीरोदात्त नायक-नायिकाओं का यशोगान करते हैं।