________________
xxx :: मूकमाटी-मीमांसा
(ग) कवित्व का प्रथम पुष्प : 'गुरु-स्तव'
महाराजश्री मुनि दीक्षा के बाद अन्तस् में स्फुरित भावराशि को भाषा में बाँधने लगे, लिपिबद्ध करने लगे। साधक का अपना प्रस्थान मार्ग होता है, उसके प्रति उसे निष्ठावान् होना होता है । निष्ठा के सुदृढ़ीकरण के लिए अन्य प्रस्थानोचित चिन्तन का खण्डन भी करना पड़ता है । यह खण्डन, खण्डन के लिए नहीं, प्रत्युत् अपने प्रस्थान के प्रति अपनी श्रद्धा के सुदृढ़ीकरण के लिए होता है। महाराजश्री की 'मूकमाटी' का 'मानस-तरंग' इस सन्दर्भ में उल्लेख्य है, जहाँ उन्होंने अपने प्रस्थान के अनुरूप न पड़ने वाले 'ईश्वर' का खण्डन किया है और स्रष्टा के रूप में अनावश्यक बताया है। प्रस्थान मार्ग में चलने पर अनुभूतियाँ उभरती हैं, जिससे साधक गहराई से जुड़ा होता है । इसमें सारा श्रेय सद्गुरु का होता है । साधक का उपाय उसी के निर्देश से चरितार्थ होता है, अत: एक तरफ श्रद्धा में सम्यक्त्व का आधान होता है
और दूसरी ओर ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व का उदय होता है । इस दौरान जो अनुभूतियाँ होती हैं, एक सन्त उसे काव्यबद्ध करता ही है, यह उसकी विवशता है । अपने आनन्द को वह काव्य के माध्यम से लोक को बाँटता है। इसमें उसे आनन्द मिलता है । इसीलिए सन्त लिखता है-'स्वान्तःसुखाय', पर उसका स्वान्तः स्व-पर की संकीर्ण भावना का अतिक्रमण कर चुका होता है । अत: उसका स्वान्तःसुख सबका सुख बन जाता है । तो मैं कह यह रहा था कि साधना के दौरान सबसे पहले जिसके प्रति श्रद्धा का उदय होता है, अपने वाक्पुष्प वह उसी को चढ़ाता है। महाराजश्री ने भी यही किया । इनकी पहली मुद्रित/उपलब्ध रचना गुरु वन्दना ही है । १९७१ में लिखित इस गुरुवन्दनामय काव्य की संज्ञा दी गई - 'आचार्यश्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज के पावन चरणारविन्द में हार्दिक श्रद्धांजलि ।' साधक अपनी साधना को लोक में उजागर करते हुए लोकमान्यता की हवा से डरते हैं। एक सन्तप्रवर ने कहा है : "लोकमान्यता अनल-सम कर तप कानन दाहु" - लोक प्रशंसा वह आग है जो तप के उद्यान को भस्म कर डालती है । महाराजश्री भी कहते हैं:
"लोकैषण की चाह ना, सुर-सुख की ना प्यास ।
विद्यासागर बस बनूँ, करूँ स्व-पद में वास ॥” (सुनीति-शतक) इसलिए महाराजश्री उसे प्रकाश में नहीं लाते थे, पर उनके भक्त श्रावकों ने वैसा नहीं होने दिया, प्रकाश में ला ही दिया । फिर तो श्रावकगण के साथ महाराजश्री ने भी उस गुरु वन्दना के मधुरगान में सहयोग प्रदान किया। स्तोत्र-काव्य का यह शुभारम्भ बढ़ता ही गया । महाराजश्री की श्रद्धासिक्त प्रतिभा आचार्य श्री वीरसागरजी (१९७१), आचार्य श्री शिवसागरजी (१९७१) एवं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी (१९७३) पर भी उमड़ कर कविता के रूप में बरस पड़ी । यह क्रम बढ़ता ही गया और नित्यप्रति नूतन भावभूमियों पर उनकी प्रतिभादेवी चढ़ती गई। इस प्रवाह में भावना भी थी और उसमें सुगन्ध की तरह व्याप्त जीवन दर्शन तथा चिन्तन प्रसूत मान्यताएँ भी। (घ) संस्कृत भाषाबद्ध शतकों की सृष्टि
___आलोच्य रचना 'मूकमाटी' से पूर्व उनकी दर्जनों रचनाएँ आ चुकी हैं - गद्यबद्ध प्रवचन भी और पद्यबद्ध प्रकीर्ण तथा प्रबन्धात्मक भी । महाराजश्री अनेक भाषाविद् हैं – संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़ तथा मराठी जैसी देशभाषाएँ तो वे जानते ही हैं, विदेशी आंग्लभाषा के भी अच्छे जानकार हैं । आपकी रचनाएँ प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, बंगला, कन्नड़ और अंग्रेजी में ही प्राय: हैं। 'मूकमाटी' (१९८८)* हिन्दी भाषा में निबद्ध है। उस तक की प्रातिभ यात्रा * आलेखन प्रारम्भ - श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश में आयोजित ग्रन्थराज 'षट्खण्डागम
वाचना शिविर' (चतुर्थ) के प्रारम्भिक दिवस, बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के दीक्षा कल्याणक दिवसवैशाख कृष्ण दशमी, वीर निर्वाण संवत् २५१०, विक्रम संवत् २०४१, बुधवार, २५ अप्रैल, १९८४ । श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, छतरपुर, मध्यप्रदेश में आयोजित श्री मज्जिनेन्द्र पंचकल्याणक एवं त्रय गजरथ महोत्सव के दौरान केवलज्ञान कल्याणक दिवस- माघ शुक्ल त्रयोदशी, वीर निर्वाण संवत् २५१३, विक्रम संवत् २०४३, बुधवार, ११ फरवरी, १९८७ को हुआ।
समापन