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________________ 'मूकमाटी' : : युग की महान् उपलब्धि डॉ. योगेश्वरी शास्त्री 'मूकमाटी' नए युग का महाकाव्य है। अतएव नवीन दृष्टिकोण होना स्वाभाविक है । विद्यासागरजी जैसे जैन मुनि के लिए युगप्रवर्तक महाकाव्य लिखना और उसमें भी नई दृष्टि का निरूपण करना कुछ आश्चर्य की बात नहीं । आश्चर्य तो तब होता जब उसमें नवीनता या नई दृष्टि न होती । 'मूकमाटी' महाकाव्य में कवि समग्र दृष्टि को लेकर चला है । यह काव्य सम्पूर्ण दृष्टि से प्राचीन और नवीन महाकाव्यों से भिन्न है । भिन्न ही नहीं, अपितु समग्र दृष्टि से नवीन है, अप्रतिम है और अनोखा है । भारतीय महाकाव्य 'वाल्मीकि रामायण' और 'महाभारत' तथा पाश्चात्य महाकाव्य ‘ईलियड' और 'ओडिसी' की रचना से यह एकदम भिन्न एवं नवीन विकास बिन्दुओं को समेटता हुआ दृष्ट होता है । न ही इस काव्य में 'साकेत' जैसी कोई दृष्टि है, न ही 'कामायनी' जैसा छन्दों का बन्धन ही है, यह महाकाव्य तो अपने युग का अनूठा प्रतिदान है। युग के प्रमुख छन्द 'स्वच्छन्द छन्द' को इसने ग्रहण किया है, जो युग की पहचान है, युग की सापेक्षता है तथा स्वच्छन्द ध्येय, स्वच्छन्द लक्ष्य, चिन्तन - प्रसूत स्वच्छन्द विचारों का जनक है। हम इसे 'कामायनी' महाकाव्य के निकट एक ही अर्थ में कह सकते हैं- वह है दर्शन । 'कामायनी' में शैवागमों का आनन्दवादी सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए भी प्रसादजी ने उस सिद्धान्त को मानवीय भूमिका प्रदान की है, जो उनकी स्वयं की दृष्टि का परिचायक है । 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचनाकार विद्यासागरजी 'स्व' और 'पर' की भूमिका से कहीं बहुत ऊँचे उठ चुके हैं, जो जैन धर्म के अनुयायी होते हुए भी अपने जीवन-सिद्धान्तों से, अपने विचारों से दूसरों को अनुयायी बना चुके हैं, ऐसे 'जिन' - इन्द्रियजित् पुरुष इस 'मूकमाटी' के रचयिता हैं । अतः इस महाकाव्य में हमें जैन धर्म के सिद्धान्तों का दर्शन तो यत्र-तत्र होता ही है, मुनिवर के विचारों का, सिद्धान्तों का स्वतन्त्र प्रवाह भी दिखाई पड़ता है । - आज इस आपाधापी के युग में महाकाव्यों का सृजन एक कल्पना मात्र बनकर रह गई है। न तो किसी के पास समय ही है और न चिन्तन प्रसूत दिमाग़ ही । मनुष्य तो स्वयं अपने ही जाल - जंजाल की भूल भूलैयाँ में इतना उलझ चुका है कि वह छोटी-छोटी कविताएँ लिख सकता है, क्षणिकाएँ लिख सकता है या फिर एकांकी या कहानी लिखकर ही अपनी अभिव्यक्ति की इतिश्री समझ लेता है । महाकाव्य लिखने के लिए महान् व्यक्तित्व के साथ-साथ चिन्तन आवश्यक है। चिन्तन प्रसूत ज्ञानी ही 'मूकमाटी' की अभिव्यक्ति में समर्थ होता है । आज के युग के मूल्य बदल चुके हैं । न कोई सीमाएँ हैं, न कोई बन्धन है और न कोई नियम है। अत: हम 'मूकमाटी' को महाकाव्य के पुराने बन्धनों में नहीं कसना चाहेंगे । कृति का मूल्यांकन युग सापेक्ष होना ही आवश्यक है। अन्यथा न हम कृतिकार के साथ न्याय कर सकेंगे और न कृति के साथ ही । किसी भी कृति को तौलने के लिए, उसको कसौटी पर कसने के लिए कृतिकार का समग्र जीवन दर्शन जानना आवश्यक होता है। उस दृष्टि से जैन मुनि विद्यासागरजी का जीवन हम सभी के लिए खुली किताब है । वे जैन दर्शन की धुरी हैं, अतः कृति पर जैन दर्शन का प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है । जैन दर्शन के आदिनाथ से लेकर महावीर तक प्राय: एक जैसे सिद्धान्त रहे हैं । अपरिग्रह, अहिंसा, अनेकान्तवाद - ये तीन मूलमन्त्र हैं जैन धर्म के । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति- जिन्हें सामान्यतः जड़ माना जाता है, ऐसे जड़ में जीव तत्त्व का होना, शरीर को साधनागत कष्ट देना, कर्तृत्व के अहंकार और अपनत्व के ममकार को छोड़कर जो 'स्व' और 'पर' को समझ सके, वही महावीर के अनुसार भगवान् है । भगवान् धर्म का संस्थापक नहीं, अपितु धर्म का आश्रय लेकर आत्मा भगवान् बनता है। भगवान् जन्म नहीं लेता, भगवान् तो आत्मा को जीतने से बनता है। जो पूर्ण वीतरागी है वही भगवान् है तथा वही सर्वज्ञ है । धर्म स्वयं परिमार्जित है । वह विकारी आत्मा को परिमार्जित करता है। |
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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