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260 :: मूकमाटी-मीमांसा दण्ड संहिता का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए तथा मृत्यु दण्ड का विरोध करते हुए कवि कहता है :
"उद्दण्डता दूर करने हेतु/दण्ड-संहिता होती है/माना,/दण्डों में अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होता है ।/प्राणदण्ड से/औरों को तो शिक्षा मिलती है, परन्तु/जिसे दण्ड दिया जा रहा है/उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्ड-संहिता इसको माने या न माने,/क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी/एक अपराध है,
न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।" (पृ. ४३०-४३१) आज राजनीति समस्त ज्ञान-विज्ञान की मापनी बन गई है। किन्तु कवि ने सदैव रामराज्य का सपना देखा है। उन्होंने आसमानी राज्य की कल्पना की है और पद-लोलुपता की निन्दा की है। आज संसार कलियुग के राज्य में साँस ले रहा है । सत्-युग और कलियुग के सम्बन्ध में आचार्यश्री ने लिखा है :
“सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह
सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है !" (पृ. ८३) यह प्रार्थना मात्र कवि की अपने लिए ही नहीं है। सभी राजनेता इसे दोहराएँ :
"पद-लिप्सा का विषधर वह/भविष्य में भी हमें न तूंघे
बस यही भावना है, विभो !" (पृ. ४३४) श्वान और सिंह के माध्यम से कवि ने स्पष्ट कर पदलोलुप राजनेताओं पर तीखा प्रहार किया है :
"श्वान को पत्थर मारने से, वह/पत्थर को ही पकड़कर काटता है मारक को नहीं !/परन्तु/सिंह.../मारक पर मार करता है वह । ...कभी भी यह नहीं सुना कि/सिंह पागल हुआ हो ।/श्वान... जब कभी क्षुधा से पीड़ित हो/...मल पर भी मुँह मारता है वह,/और जब मल भी नहीं मिलता "तो/अपनी सन्तान को ही खा जाता है, किन्तु, सुनो !/भूख, मिटाने हेतु
सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता ।” (पृ. १७०-१७१) लोकतन्त्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है :
" 'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/ भी है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर 'भी' बैठा था। यही कारण कि/राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी/'भी' के आस-पास बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य,/किन्तु भीड़ नहीं,/'भी'लोकतन्त्र की रीढ़ है। लोक में लोकतन्त्र का नीड़/तब तक सुरक्षित रहेगा जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा।" (पृ. १७३)