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258 :: मूकमाटी-मीमांसा
जो जीने की इच्छा से ही नहीं,/मृत्यु की भीति से भी ऊपर ऊठी है ।" (पृ. २८१ ) सन्तों ने व्यवहार कुशलता का मार्ग दिखाकर सामाजिक जीवन का भी निर्देशन किया है। विद्यासागरजी के अनुसार :
"जब सुई से काम चल सकता है/तलवार का प्रहार क्यों ? जब फूल से काम चल सकता है/शूल का व्यवहार क्यों ? जब मूल में भूतल पर रह कर ही/फल हाथ लग रहा है तब चूल पर चढ़ना/मात्र शक्ति-समय का अपव्यय ही नहीं,
सही मूल्यांकन का अभाव भी सिद्ध करता है।” (पृ. २५७) सन्त वाणी में कबीर आदि सन्तों ने दुर्जन की निन्दा की है। दुर्जन कौन ? इस का उत्तर विद्यासागरजी ने इन शब्दों में दिया है :
"औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना
दुर्जनता का सही लक्षण है।” (पृ. १६८) दुर्जन व्यक्ति तो सहधर्मी को भी सहन नहीं कर पाता, अत: कवि ने लिखा है :
“सहधर्मी सजाति में ही/वैर वैमनस्क भाव/परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान श्वान को देख कर ही/नाखूनों से धरती को खोदता हुआ
गुर्राता है बुरी तरह ।” (पृ.७१) मनोविज्ञान की धुरी मन है । उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व मन/आत्मा का अध्ययन दर्शनशास्त्र का विषय था। आज मनोविज्ञान एक स्वतन्त्र चिन्तन का विषय है । महावीर के अनुसार जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। सब अर्थों को जानने वाला ज्ञान मन कहलाता है । यह चार प्रकार का होता है-द्रव्य मन, भाव मन, चेतन मन और पौद्गलिक मन । नामदेव की मान्यता है कि मन की व्यथा मन ही जानता है । यह सारे संसार में भ्रमण कराता है तथा गज के समान है । कबीर के अनुसार दस इन्द्रियों में से एक मन है। यह जल से अधिक पतला, धुएँ से अधिक झीना और वायु से अधिक द्रुतगामी है । इस के चार भाग हैं- मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार । इस पर नियन्त्रण आवश्यक है। रविदास कहते हैं कि पिउ उस मन में नहीं आता जहाँ अहंकार का वास होता है । इसे साधने पर ज्ञान, ध्यान आदि उपलब्ध हो जाते हैं। दादू का कहना है कि पवित्र मन होने पर शरीर के विकार नष्ट हो जाते हैं। सुन्दरदास कहते हैं कि मन पल में मरता और पल में जीता रहता है । मलकूदास कहते हैं जब मन के पखावज पर प्रेम के तार बजने लगते हैं तो मन नाचने लगता है । नानक ने मन की उत्पत्ति पंच तत्त्वों - आकाश, पवन, अग्नि, जल और पृथ्वी - से मानी है। उन्होंने मन को मार कर परमात्मा को पाने का उपदेश दिया है। आचार्य विद्यासागरजी ने उक्त सभी मतों का निचोड़ सरल भाषा और मुक्त छन्द में प्रस्तुत किया है :
"मन को छल का सम्बल मिला है-/स्वभाव से ही मन चंचल होता है, तथापि/इस मन का छल निश्चल है/मन माया की खान है ना! बदला लेना ठान लिया है/...वैसे/मन वैर-भाव का निधान होता ही है । मन की छाँव में ही/मान पनपता है/मन का माथा नमता नहीं