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________________ 252 :: मूकमाटी-मीमांसा तीसरा खण्ड स्पष्ट रूप से कहता है कि जीवन में पुण्य कर्मों का अपना इतिहास है जो कि जघन्य पापी को भी सन्त की कोटि तक पहुँचा देता है । हम कितने स्वार्थी एवं संकीर्ण बनते जा रहे हैं, इसे कवि ने इस खण्ड में उल्लेखित किया है। आज स्वार्थपरस्ती का ताण्डव नृत्य जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त है । इसीलिए देवी-देवताओं एवं सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक राष्ट्र कहलाने वाला हमारा भारत आज मानो अपनी उच्च आध्यात्मिक आदर्श की अस्मिता को खोता जा रहा है। इसे पुनर्जीवित करने हेतु हमारे आध्यात्मिक-साधनारत मुनि श्री विद्यासागरजी ने अपनी अनूठी एवं मौलिक रचना 'मूकमाटी' की सृष्टि कर हमारे समाज में आध्यात्मिक ज्योति प्रज्वलित कर दी है। आधुनिक एवं विकासशील समाज में भौतिकवाद की दौड़ में हर व्यक्ति कितना व्यस्त है, इस पर महाराजजी की लेखनी ने अविरल गति से प्रकाश डाल कर यह स्पष्ट कर दिया है कि आज मनुष्य शिक्षित होकर भी अज्ञान के अन्धकार में भटक रहा है। तभी तो उसे प्रकाश का मार्ग दिखाई नहीं दे रहा है। भौतिकवाद की लोलुपता ने हमें दम्भी बना दिया है, जिसका कि साधना में कोई स्थान नहीं होता है। साधनरत व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में अपनी विनम्रता का परिचय देकर लोगों के हृदय में घर बना लेता है। साधनारत सन्त की एक मात्र शक्ति हर स्थिति में उसकी सहनशीलता होती है । इसे हमारे सन्त कवि जी रहे हैं, तब ही तो सन्त स्वभाव के अनुकूल 'कथनी एवं करनी' की समानता पर आपने निर्भीक होकर अपने चिन्तन-मनन को प्रस्तुत किया है। आज हम एक-दूसरे को फलता-फूलता फूटी आँख भी नहीं देख सकते । इसीलिए तो कवि की अन्तरात्मा आर्तनाद करती हुई कहती है : "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) कितना सत्य है कवि का मनन ! तब ही तो आज समाज को व मनुष्यों के दिलों को दूर करने वाला अविश्वसनीय यथार्थ का चित्रण इस आध्यात्मिक कृति में हुआ है। पुरुष वर्ग ने स्त्री समाज का शोषण तो हमेशा ही किया है, किन्तु उसकी चुनौतियों का जो मुँहतोड़ जवाब नारी देती रही है, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता के क्षेत्र में, आज तो ऐसा लगता है कि पुरुष से समानता करने हेतु नारी इन्हें अतीत का अनावश्यक बन्धन समझ कर उसे तोड़-फेंकने के लिए हर पल आतुर दिखाई देती है। 'अबला' शब्द, जो नारी को असहाय दर्शन के लिए प्रयोग किया जाता रहा, भक्त-कवि ने उसकी परिभाषा भी बदल दी है । नारी की समस्त आध्यात्मिक शक्तियों का उल्लेख कर नारी के प्रति अपनी समस्त श्रद्धा का परिचय दिया है। किन्तु, नारी समाज को स्वयं से गम्भीरता पूर्वक यह प्रश्न करना है कि क्या वह इस महान् साधक द्वारा नारी का जो महिमागान किया गया है, उसके अनुकूल स्वयं को पाती है ? मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि निम्न दो पंक्तियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से सन्तजी ने कहा कि पुरुषों की वासना का शिकार बनना नारी पर निर्भर करता है, अत: नारी-शोषण का पूरा दोषी अकेला पुरुष नहीं है । पंक्तियाँ हैं : "कुपथ-सुपथ की परख करने में/प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने ।"(पृ.२०२) स्त्री-पुरुषों के पवित्र मिथुन सम्बन्धों को जो विकृत रूप दिया जा रहा है, कविश्री ने उसकी पवित्रता को पुन: प्रतिष्ठित करने हेतु सम्बन्धों के उद्देश्य को बड़े सटीक रूप में स्पष्ट किया है ताकि उसमें अश्लीलता की गन्ध न लाई जाए। 'स्त्री' शब्द की व्याख्या, जिसे सन्त कवि ने प्रस्तुत किया है, की ओर शायद ही इसके पूर्व किसी का ध्यान गया होगा । सामान्यत: 'स्त्री' कहने से भोग-विलास एवं अलंकरण का बोध होता है । 'स्' एवं 'त्री' वर्गों का विश्लेषण कर कवि
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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