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मूकमाटी-मीमांसा :: xxvii
सर्जनात्मक अनुभूति का कलात्मक उद्रेखण है, जीवनानुभूति का कवित्वमय प्रकाशन है, भावनाओं का गुणालंकारमण्डित भाषा में प्रभावी उपस्थापन है, पृथिवी और स्वर्ग का मधुमय मिलन है तथा और भी कुछ लोकोत्तर है । उन्हें इस रचना में ऐसा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उनका पक्ष यह है कि काव्य के मूलभूत काव्योपादन संवेदना का घटक दृष्टि या विचार गन्ध की तरह काव्य में व्याप्त अवश्य हो, पर तह में निहित हो । यह पक्ष निस्सन्देह युक्तिसंगत प्रतीत होता है । (ग) बहिरंग साक्ष्य
'मूकमाटी' के 'मानस तरंग' (पृ. XXIV) में उपस्थापक स्वयं कह रहा है : “ऐसे ही कुछ मूल-भूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार-रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं; अलंकार अब अलं का अनुभव कर रहा है। जिसमें शब्द को अर्थ मिला है और अर्थ को परमार्थ; जिसमें नूतनशोध-प्रणाली को आलोचन के मिष, लोचन दिये हैं;...जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है 'मूकमाटी'।" इस उद्धरण की प्रशस्तिपरक उक्तियों को हटा दिया जाय, केवल तथ्यपरक उक्तियों को दृष्टिगत किया जाय तो मानना पड़ेगा कि इस कृति की रचना जिनशासन के कतिपय मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु हुई है । इसका लक्ष्य है – युग को संस्कार देना और वीतराग श्रमण संस्कृति को जीवित रखना । अश्वघोष (सौन्दरनन्द, १८/६३) के शब्दों में, “इत्येषा व्युपशान्तये न रतये ।" (घ) अन्तरंग साक्ष्य
यह तो रहा बहिरंग साक्ष्य, यद्यपि इस प्रकार के निर्णय पर अन्तरंग अनुशीलन से ही पहुँचा गया है । इस निर्णय से हट कर कृति के विषय पर सीधे दृष्टिपात किया जाय तो उससे भी उक्त निष्कर्ष की ही पुष्टि होती है। किसी भी ग्रन्थ का तात्पर्य स्पष्ट करना हो तो निम्नलिखित दृष्टियों से मन्थन करना पड़ता है- (क) उपक्रम (ख) उपसंहार (ग) अभ्यास (घ) अपूर्वतापरक फल (ङ) अर्थवाद तथा (च) उपपत्ति । आलोच्य ग्रन्थ का 'उपक्रम' होता है प्रात:कालीन परिवेश में सरिता तट की माटी का माँ धरती के संवाद के साथ, जिसमें नित्य 'सुखमुक्त' और 'दु:खयुक्त' परसंसर्गजन्य वैभाविक स्वरूप पर ग्लानि के आँसू बहाए जा रहे हैं और 'स्व-भाव' की उपलब्धि का मार्ग अभूतपूर्व तड़प
और वेदना के साथ जिज्ञास्य है। 'उपसंहार' में वृहत् सत्ता माँ धरती का प्रतिसत्ता' अर्थात् उपादानभूत सरिता तट की माटी की मूर्त सम्भावना 'घट' और घट की सम्भावना 'सृजनशील जीवन का वर्गातीत अपवर्ग' की उपलब्धि पर सन्तोष है। आलोच्य ग्रन्थ में घट की - जीवात्मा के प्रतीक घट की अपवर्ग निमित्तक महायात्रा का प्रचुरता से सावष्टम्भ वर्णन ही तो अभ्यास' है और इस महायात्रा का गन्तव्य अपवर्ग' 'अपूर्व फल की उपलब्धि' है। स्थान-स्थान पर इस उपलब्धि की प्रशस्ति 'अर्थवाद' है और यही सर्वश्रेष्ठ है, की सिद्धि में दिए गए तर्क ही उपपत्ति' हैं । इन सब तात्पर्य निर्णायक कारणों से अन्तरंग परीक्षण भी सिद्ध करता है कि ग्रन्थकार का लक्ष्य श्रेय:प्राप्ति में उपयोगी जैन प्रस्थान-सम्मतमान्यताओं का रोचक उपस्थापन ही है। (ङ) पारम्परिक साक्ष्य
जैन काव्य की परम्परा पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए ‘जैन साहित्य का वृहद् इतिहास'- भाग ६ में श्री गुलाबचन्द चौधरी भी कहते हैं : “जैन काव्यों का दृष्टिकोण धार्मिक था। जैन धर्म के आचार और विचारों को रमणीय