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xxvi:: मूकमाटी-मीमांसा
त्रुटियाँ-त्रुटियाँ और खामियाँ-ख़ामियाँ ही दिखाना तथा उपलब्धियों की ओर से आँख बन्द कर लेना सर्वथा अनुचित है। दोषज्ञ होना पण्डित का लक्षण है पर मात्र उतने को ही अपनी सीमा बना लेना उसकी संकुचित और ओछी मनोवृत्ति का प्रकाशन है । फिर गुणज्ञ और गुणग्राही होना मूर्ख का लक्षण नहीं है, वह साक्षर का नहीं, सरस का लक्षण है। 'काव्यप्रकाश'कार ने काव्यलक्षण में जब “अदोषौ..." का समावेश किया, आचार्य हेमचन्द्र ने जब उसका प्रवेश किया तब टीकाकारों ने ऊर्ध्वबाहु घोषणा की कि ऐसा लक्षण या तो निर्विषय' होगा या 'प्रविरलविषय'। अभिप्राय यह कि दोषों का होना तो निसर्गप्राप्त है, सर्जक की उपलब्धि उसके पौरुष और प्रतिभा का प्रमाण है । विद्वान् को चाहिए कि वह दोषों के साथ उसकी उपलब्धियों की ओर भी अपनी दृष्टि को फेरे और उसका भी उल्लेख करे । ऐसा करने का लाभ यह होगा कि इस सन्तुलित प्ररोचना से जिज्ञासु पाठक समीक्षित ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन, परिशीलन में प्रवृत्त होता है, अन्यथा उसे अरुचि हो जाती है और वह प्रवृत्त की जगह निवृत्त हो जाता है । परिणामतः सर्जना निष्फल चली जाती है। कविता-कामिनी के पास रसिक सहृदय भी जाता है और प्रेत (समीक्षक) भी । एक दुलारता, पुचकारता, अपने अनुकूल बनाता हुआ उसका आस्वाद लेता है और दूसरा प्रेतकल्प तार्किक समीक्षक कृति के भीतर घुसकर उसका प्राण ही ले लेता है। कहा गया है :
“काव्यं कवीनामुपलालयन् हि भुङ्क्ते रसज्ञो युवतीं युवेव ।
तामेव भुङ्क्ते ननु तार्किकोऽपि प्राणान् हरन् भूत इव प्रविष्टः॥" कुछ एक मित्रों ने ऐसे कार्य में प्रवृत्त होने को चापलूसी या भौतिक स्वार्थ की पूर्ति का माध्यम समझा है। समझ तो समझदार के संस्कारों से रंजित होती है, अत: उसकी टिप्पणी जितना स्वयम् उस पर लागू होती है, सामने वाले पर नहीं । अस्तु, ऐसे अप्रिय प्रसंगों को ज़्यादा जगह देनी भी नहीं चाहिए। तुलसीदास के शब्दों में ऐसे लोग प्रथम वन्द्य हैं ताकि उनके कारण सत्कार्य से निवृत्ति न हो।
अनेक प्रबुद्ध सज्जनों और मनीषियों ने अपनी समीक्षाएँ इस बृहत् सारस्वत यज्ञ में आहुति के रूप में प्रदान नहीं की कि इससे उनका व्यक्तिवैशिष्ट्य समष्टि में तिरोहित हो जायगा और उनके अहम् को उसका प्राप्य प्राप्त नहीं होगा । वे यह क्यों नहीं समझते कि वे जहाँ भी रहेंगे अपना भास्वर व्यक्तित्व अलग से ही प्रकाशित करते रहेंगे, उनकी पंक्ति अलग ही दूर से लक्षित होगी। इससे उनका अहंकार भी विघटित होता और समाज की दृष्टि में उनका स्वरूप और महान् हो जाता। किसी के सम्मान से सम्मानकर्ता का अहम् छोटा होता है, हैवान नष्ट होता है, पर उसका इन्सान समाज की दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है । सन्तों की यह प्रणाली कि अपनी ओर से विनत रहो, समाज की ओर से सहज ही समुन्नत हो जाओगे, कितनी सात्त्विक है । गजानन माधव मुक्तिबोध का 'ब्रह्म राक्षस' इस सत्य को समझ कर भी अनदेखा कर देता है।
____ हाँ, तो कहा यह जा रहा था कि आलोच्य कृति की समीक्षा प्रक्रान्त है, अत: सर्वप्रथम यह देखना है कि आलोच्य कृति की प्रकृति क्या है, वह वाङ्मय की किस विधा के अन्तर्गत आ सकती है ? यह शास्त्र है या काव्य या शास्त्रकाव्य । अनेक समीक्षकों की आपाततः धारणा यह मालूम हुई है कि यह काव्य ही नहीं है, प्रबन्ध काव्य या महाकाव्य होना तो दूर की बात है। (ख) आलोच्य कृति की प्रकृति
आलोच्य कृति पर आपातत: दृष्टिपात करने पर जैन प्रस्थान की मान्यताओं और सिद्धान्तों की विभिन्न प्रतीकों के सहारे उन्हें रूक्ष उपस्थापन ही दृष्टिगोचर होता है । उन्हें लगता है कि काव्य रसात्मक वाक्य है, संवेदना या