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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 221 स्वीकार किया जाता है। गुण-दोष की कसौटी स्थान, समय, वातावरण, देश, काल, परम्परा और सनातन संस्कृति आदि को विचारते हुए बनती है। सबको देखते हुए जो भाव या अर्थ निकले वही शोध है । उदाहरण स्वरूप : "परहित सरिस धरम नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई || ” ( तुलसीदास ) उक्त वाक्य अपने शब्दार्थ से शोधित है। शोध के पश्चात् ही इसका सर्वमान्य अर्थ निर्दिष्ट हुआ है । यहाँ देखना यह है कि शब्द 'परहित' का क्षेत्र कितना है । इस परिधि में प्राणिमात्र आ जाते हैं। 'पर' के क्षेत्र में अपने परिचित और अपने समुदाय वर्ग और जाति-धर्म और देश के ही नहीं, अपितु अपना विरोधी और शत्रु इसी क्षेत्र में है । यह क्षेत्र जीवमात्र तक विस्तृत होने के कारण समूची सृष्टि को समेट लेता है, तभी तो भारतीय संस्कृति 'वसुधैव कुटुम्बकम्' भाव को मान्यता देती है । शब्द 'परहित' जिसमें शत्रुओं, विरोधियों और अन्य देश व धर्म मतावलम्बियों का सम्मिलित है उसको कैसे, क्या किया जाय ? इस प्रकार का उद्वेग मन में उठेगा। दूसरी ओर 'परहित' शब्द की शोधित सर्वमान्य मान्यता भी सुनिश्चित कर दी गई है । इसमें लेश मात्र भी परिवर्तन असम्भाव्य है । तब मन मारकर शान्त चित्त-मन-बुद्धि से विनम्रता और शिष्टता के साथ शोधार्थ के अनुसार चलना ही है, वैसा ही आचरण और क्रिया करनी ही है। इसी से आचार्यजी ने शोध-भाव को नमन किया और नमन करने का संकेत किया : “ पुण्य - निधि का प्रतिनिधि बना / बोध - भाव का आगमन हो रहा है, और / अनुभूति का प्रतिनिधि बना / शोध - भाव को नमन हो रहा है सहज-अनायास ! यहाँ !! / ... बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है ।" (पृ. १०६ - १०७ ) सन्तवेश और बात है एवं सन्तत्व को प्राप्त होना और । इस काव्य के प्रणेता आचार्यजी सन्तत्व को प्राप्त हैं । देह से ही नहीं, मन-वचन-कर्म और स्वभाव से सहज सन्त हैं। तभी तो तत्त्व-दर्शन अनायास ही यत्र-तत्र प्रसंगवश या यों ही सर्वत्र पग-पग पर उद्धृत मिलता है। लोग कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास बार-बार राम के ब्रह्मत्व प्रदर्शन को चेतावनी रूप में लाए हैं, ऐसा क्यों है ? क्या एक बार का कहना पर्याप्त नहीं होगा कि राम परमब्रह्म हैं । गोस्वामी तुलसीजी की दृष्टि से एक-दो बार का कहना पर्याप्त नहीं था। क्योंकि राम परमब्रह्म होकर भी नर लीला हेतु अवतरित हुए हैं। राजा के लड़के राजकुमार रूप में हैं। काव्य के प्रवाह में पाठक अथवा श्रोता उन्हें कहीं साधारण राजकुमार ही न मान लें, क्योंकि इस वेश से ज्ञानी को भी भ्रम हो जाता है । देखिए, बार-बार चेतावनी देने पर भी जगत्-माता 'सीता', पक्षिराज गरुण और परम ज्ञानी रावण को भी भ्रम हो गया है, औरों की तो बात क्या है। इसी प्रकार सहज सन्त स्वभाव वाले आचार्यजी भी परोपकारार्थ, लोकहित में, भ्रमितों को दिशानिर्देश हेतु दर्शन तत्त्वों को चेतावनी के रूप में चित्रित करते चलते हैं। लगता है अपने लोकोपकारी अनुभवजन्य भावों को, सनातन सिद्ध, दर्शन तत्त्वों को, तथा जनहित में अन्यान्य भावों को आपने परम हितकर मानकर जन-जन तक पहुँचाने के लिए प्रतीकात्मक रूप से 'मूकमाटी' काव्य के पात्रों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करने का साधन बनाया है, क्योंकि इस काव्य के नायक-नायिका और अन्य सभी पात्रों ने अपने-अपने क्रियाकलापों से जिस प्रकार क्षमा, सहनशीलता और वैर आदि भाव अशान्त - अधोगति का विनाशकारी परिणाम तो शिष्टता, विनम्रता का शान्त - ऊर्ध्वगामी पथ प्रस्तुत किया है। उसमें हमें क्या ग्रहण करना चाहिए, तथा हमारे जीवन का क्या लक्ष्य है, इस दृष्टि से देखने और विचार करने के लिए हम पर छोड़ दिया है। जबकि प्रच्छन्न रूप से दर्शन तत्त्व विवेचन ही पूरे काव्य में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरा पड़ा है, जिसको आवश्यकता हो, खोज ले और जीवन में अपनाकर धन्य हो जाय । दर्शन तत्त्व के कुछ नमूने :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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