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मूकमाटी-मीमांसा :: 181
है।
इसी क्षीयमाण पर व्यापक सामाजिक सन्दर्भो से जुड़ने वाली काव्य-परम्परा में आचार्य विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना कर एक सशक्त कड़ी जोड़ने का सफल प्रयास किया है । इसकी मूल विषयवस्तु मूक माटी की त्रासदिक संवेदना है । यह युग-युग की सताई, निरीह, पद दलित और पीड़ित तथा व्यथित है । मूक माटी प्रतीक है धरती के उस जीवन का जो युगों-युगों से सर्वहारा है, भूखा-प्यासा, बेजुबान है, सर्वहारा है, और शोषित है। यह प्रतीक है उस आत्मा का, जो इस दुनिया में आकर अपना रास्ता भूल गई है, दर-दर भटक रही है, मारी-मारी फिर रही है, बन्धनयुक्त हो गई है, जीवन का मूल्य और महत्ता खो बैठी है । आज जरूरत है उसे उठाने की । ओज वाणी देने की। उसे बन्धनमुक्त करने की, जिससे वह सार्थक जीवन पा सके, विशुद्धता की ओर बढ़ सके । अपना मोक्ष पा सके। अब प्रश्न यह है कि समाज का कौन सा विचार, कौन सा दर्शन, कौन सी पद्धति, कौन से लोग शिल्पी कुम्भकार बनेगे जो मूकमाटी अथ च पीड़ित जन-जीवन की महत्ता को पहचानेंगे ? उसकी कुप्रवृत्तियों को कूट-छानकर दूर करेंगे। उसके वर्ण-संकर कंकर रूपी अवरोधों को हटाएँगे। उसको ऐसी प्रगतिशील विचारधारा रूपी चाक पर चढकर ऐसे मंगल घट का स्वरूप देंगे जो सब कुछ सहकर, रच-पककर अपना मांगलिक-सार्थक आकार ग्रहण कर सके । सन्त कवि का लक्ष्य है जन जीवन का जागरण, मूक-बद्धमूल आत्मा की जागृति, विशुद्धि और सार्थकता।
इस प्रकार धर्म की ज्योति में लोक जीवन की निर्मिति, सार्थकता और मुक्ति इस काव्यग्रन्थ का अभीष्ट है । लोक और धर्म का समन्वय इसकी विशेषता है । उदाहरणस्वरूप जीवन की सार्थकता चलने में है, बहने में है एवं गतिशील बनने में है-'चरैवेति चरैवेति ।' सूर्य, चन्द्र, पवन, सरिता का जीवन ऐसा ही है । कवि के शब्दों में :
"मन्द-मन्द/सुगन्ध पवन/बह रहा है;/बहना ही जीवन है।" (पृ. २) जीवन की सार्थकता के लिए सत्संगति की महिमा सर्वत्र गाई गई है- 'बिनु सतसंग विवेक न होई।' कवि भी कहता है :
"जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है/मति जैसी, अग्रिम गति
मिलती जाती "मिलती जाती।" (पृ. ८) फिर इसे लेकर प्रयत्न करना है। आगे बढ़ना है। निर्भय बनना है। आलस्य छोड़ना है । कवि कहता है :
"आयास से डरना नहीं/आलस्य करना नहीं ।" (पृ. ११) जीवन में साधना-स्खलित होना नहीं, क्योंकि साधना, गति या प्रगति के भाव के अभाव में कोई भी आशा फलवती नहीं होती । जीवन सार्थक नहीं बनता। कवि की उद्बोधन भरी उक्तियाँ हैं :
"कभी-कभी/गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी/आह भरते हैं,/मन खिन्न होता है/किन्तु यह सब आस्थावान् पुरुष को/अभिशाप नहीं है,/वरन्/वरदान ही सिद्ध होते हैं
जो यमी, दमी/हरदम उद्यमी है।” (पृ. १३) और लगातार प्रयास, प्रयत्न पर प्रयत्न तथा सती-सन्तजनों के निर्देश तथा उनकी आज्ञा पालन से ही कार्य की सिद्धि होती है । कवि के शब्दों में :