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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 143 कहता है: "कम बलवाले ही/कम्बल वाले होते हैं और काम के दास होते हैं।/हम बलवाले हैं/राम के दास होते हैं और/राम के पास सोते हैं।/कम्बल का सम्बल आवश्यक नहीं हमें/सस्ती सूती-चादर का ही/आदर करते हम!" (पृ. ९२) ऋतुओं के माध्यम से प्रकृति का प्रभावक अंकन भी एक हेतु है, क्योंकि साहित्य जगत् की इतिवृत्तात्मकता से कवि किसी विराम-विश्राम-स्थल की खोज किसी न किसी रूप में करता अवश्य है। इस काव्य के योगी कवि भी एक ओर जहाँ आत्मरमण, आत्मलीनता के क्षणों में अनन्त चतुष्टय जैसी अपूर्व आनन्दानुभूति प्राप्त करते हैं, वहीं उद्यत होते बाह्य जगत् में अनादिकाल से मानव की सहचरी प्रकृति के नाना दृश्य कवि के हृदय को आत्मविभोर किए बिना कैसे रह सकते हैं। प्रकृति के इन दृश्यों की सम्पूर्ण सौम्यता, विशालता, गम्भीरता, शीतलता और कोमलता आदि गुण मूक रूप से निरन्तर सहृदयता एवं प्रेरणा प्रदान करते हैं और कवि की मनोभावनाएँ समस्त प्रकृति को समेटकर लेखनी द्वारा प्रवाहित हो उठती हैं। वस्तुत: मनुष्य की चित्तवृत्ति सदा एक सी नहीं रहती । वह कभी सांसारिक क्षणिक सुख में अपने को लीन मान लेता है, तो कभी सर्वाधिक सुखी मनुष्यों में अपनी गणना करता है किन्तु थोड़े ही समय बाद दुःख के काले बादल चारों ओर छाए नज़र आने लगते हैं। सुख और दुःख, संयोग-वियोग ये जीवन के दो मुख्य पहलू हैं। फिर भी मानव जीवन की यथार्थता समझे बिना मोह के वशीभूत हो परस्पर घात-प्रतिघात और न मालूम क्या-क्या करता है ? कवि ने कहा भी "मोह-भूत के वशीभूत हुए/कभी किसी तरह भी किसी के वश में नहीं आते ये,/दुराशयी हैं, दुष्ट रहे हैं दुराचार से पुष्ट रहे हैं,/दूसरों को दुःख देकर तुष्ट होते हैं, तृप्त होते हैं,/दूसरों को देखते ही रुष्ट होते हैं, तप्त होते हैं,/प्रतिशोध की वृत्ति इन की सहजा - जन्मजा है/वैर-विरोध की ग्रन्थि इन की खुलती नहीं झट से ।/निर्दोषों में दोष लगाते हैं सन्तोषों में रोष जगाते हैं/वन्द्यों की भी निन्दा करते हैं शुभ कर्मों को अन्धे करते हैं।" (पृ. २२९) अनेक स्थलों पर गहरी व्यंग्योक्तियाँ भी पठनीय हैं : "अरे सुनो!/कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं होश के श्रमण होते विरले ही,/और/उस समता से क्या प्रयोजन जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है/जो समय पर, भयभीत को अभय दे सके,/श्रय-रीत को आश्रय दे सके।" (पृ. ३६१)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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