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________________ 'मूकमाटी' : भोग से योग की ओर प्रस्थान का एक अनुपम महाकाव्य प्रो. (डॉ.) फूलचन्द जैन 'प्रेमी' जैन संस्कृति और धर्म-दर्शन की अजस्र-धारा भारत में आदिकाल से ही समृद्ध रूप में प्रवाहित है। कभी व्रात्य, कभी आर्हत् तो कभी श्रमण आदि विभिन्न रूपों में इस संस्कृति ने सम्पूर्ण जनमानस को लोकमंगल की भावना से सदैव ओतप्रोत किया है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन व्रतों पर आधारित नैतिक मूल्यों वाली प्राक्वैदिककालीन 'व्रात्य संस्कृति' ने भारत की विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक परम्पराओं को मात्र गहराई से प्रभावित ही नहीं किया अपितु सच्चे अर्थों में भारतीयता का स्वरूप भी प्रदान किया है । जैनाचार्यों ने भारत की प्रायः सभी प्राचीन भाषाओं में साहित्य की सभी विधाओं पर विशाल साहित्य-सृजन करके भारतीय वाङ्मय की श्रीवृद्धि की है। इसी परम्परा में दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रणीत 'मूकमाटी' नामक महनीय काव्यग्रन्थ भोग से योग की ओर प्रस्थान का एक अनुपम महाकाव्य है। जैन साहित्य के इतिहास में बीसवीं शती इसलिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सार्थक सिद्ध हुई, क्योंकि एक ओर जहाँ विशाल प्राचीन आगम तथा आगमेतर साहित्य को आधुनिक युग के अनुरूप सम्पादन, अनुवाद, विवेचन, समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन तथा अनुसन्धान का महत् कार्य जितने विशाल स्तर पर हुआ, वहीं विभिन्न भाषाओं में साहित्य का नव-सृजन भी कम मात्रा में नहीं हुआ। इस प्रकार के साहित्य से राष्ट्रभाषा हिन्दी के विशाल भण्डार की समृद्धि में चार चाँद तो अवश्य ही लगे हैं । मूलतः अहिन्दी भाषी (कन्नड़ भाषी) होकर भी आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा प्रणीत 'नर्मदा का नरम कंकर', 'तोता क्यों रोता ?', 'डूबो मत, लगाओ डुबकी', 'चेतना के गहराव में' एवं 'मूकमाटी' जैसी श्रेष्ठ काव्यकृतियाँ, अनेक प्राकृत-अपभ्रंश तथा संस्कृत ग्रन्थों के पद्यानुवाद के साथ ही आपकी अनेक गद्य कृतियाँ भी लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ इनके श्रेष्ठ चिन्तन-मनन, गहन तात्त्विक ज्ञान एवं संयम की परिचायक हैं। इतने विशाल श्रमण संघ के अनुशास्ता तथा विविध उत्तरदायित्वों के बीच होकर भी अपने रचना-धर्मिता रूप मौलिक स्वरूप से वे निरन्तर अन्दर से जुड़े रहते हैं। हजारों श्रावक-भक्तों से घिरे रह कर भी वे निर्लिप्त भाव से अपने साहित्य प्रणयन में लगे रहते हैं। मुझे स्वयं अनेक वर्षों से वर्ष में दो-तीन बार उनके सान्निध्य से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। कई रचनाओं को उनके श्रीमुख से भी उनके रचना काल में सुना है, साथ ही रचना के समय के अनुभव भी। उनसे ही सुना गया उनका यह अनुभव अब तक याद है कि दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, म.प्र.) में जब किसी काव्य की रचना के समय एक स्थल पर शब्द योजना की संगति बैठ नहीं पा रही थी और रात्रि में उसी का चिन्तन करते हुए योग निद्रा में लीन हुए, तब स्वप्न में ही उसकी शब्द योजना सुसंगत हो गई। प्रात: जागकर उन्होंने सबसे पहले उसे पूरा किया। 'मूकमाटी' भी लीक से हटकर नवीन सर्जना का एक चुनौती पूर्ण वह महाकाव्य है जिससे काव्य सृजन के अनेक नए आयाम उद्घाटित होते हैं। सामान्यतया हिन्दी के कुछ आधुनिक काव्य पढ़कर तो लगता है कि लेखक अपनी बुद्धि को कष्ट देने में भी कंजूसी कर रहा है । क्योंकि साहित्य में बौद्धिक ऊर्जा होना आवश्यक है, अन्यथा ज्यों-ज्यों बौद्धिक ऊर्जा कम होती जाती है, उसका स्तर भी गिरता जाता है । आचार्यश्री के इस काव्य में आत्मोदय की बौद्धिक ऊर्जा है और इसमें है एक आध्यात्मिक एवं दार्शनिक प्रयत्न से गम्भीर और ऊर्जित हो उठने वाली वाणी। इसीलिए उनका यह काव्य 'शिक्षा' नहीं अपितु वह आत्म दर्शन है, जो रचना के रास्तों से जाता है । आचार्यश्री ने 'मानस-तरंग' शीर्षक से अपने आद्य वक्तव्य
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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