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'मूकमाटी' : मंगल - यात्रा का काव्य डॉ. (कु.) गिरिजा रानी मिश्रा
रचना एक कला है और कला साधना । साधक अनवरत लगन, अध्यवसाय, परिश्रम, निष्ठा तथा समर्पणभाव से साधना करके अपनी कला को सँवारता है । कला रसमय होकर कलाकार की साधना को अमरत्व प्रदान करती है । यह रचनाकार के लक्ष्य को गौरवान्वित करती है। रचनाकार अपनी कला के माध्यम से मानव संस्कृति का जयघोष करता है। इसमें सत्यं शिवं, सुन्दरम् के स्वर निनादित होते हैं - यही प्राणिमात्र के कल्याणस्रोत हैं । कला, रचना एवं साधना युगों-युगों तक जीवन का सन्देश प्रदान करती हैं। रचनाकार काल, देश की सीमा से विमुक्त हो जाता है और उसका कीर्तिध्वज सदैव लहराता रहता है ।
जीवन एक प्रवहमान सरिता है । उसमें जीवन के अनुभव जल बिन्दुओं के सदृश होते हैं - जल का सातत्य उसकी गतिशीलता का द्योतक है, उसी प्रकार अनुभवों की निरन्तरता जीवन का प्रतीक है । जल बिन्दु अपनी आर्द्रता से तन-मन को उल्लसित करते हैं। वैसे ही अनुभव खण्ड भी जीवन को अभिनव रस प्रदान करते हैं। जीवन रस है । रस का तात्पर्य आनन्द से है | आनन्द जीवन का लक्ष्य है । परम शान्ति, सुखोपलब्धि तथा आनन्दानुभूति भारतीय जीवन दर्शन का मूल स्वर है । मानव इसकी प्राप्ति हेतु अनवरत, अथक परिश्रम करता है। जिस प्रकार सरिता महासागर में लीन होकर अपने अस्तित्व को विराटत्व से सम्पृक्त करती है, उसी प्रकार मानव अपने जीवन को सच्चिदानन्द से बाँधकर अपने को 'मुक्त' मानता है । यह उसकी अनुपम उपलब्धि होती है। यही उसके जीवन का लक्ष्य होता है । आचार्य विद्यासागर की काव्य कृति 'मूकमाटी' इस दृष्टि से विशिष्ट है, क्योंकि इसमें रचनाकार ने अपनी अनवरत साधना से जीवन की कलात्मकता को भारतीय संस्कृति के अनुरूप अभिव्यक्त किया है। जीवन के दर्शन को सहज, सरस, प्रभावशाली एवं बोधगम्य ढंग से प्रस्तुत करने का एक सफल प्रयास किया गया है। सर्वथा अभिनव विषय को, जो जीवन रचना का एक मूलतत्त्व है, रूपक के आधार पर दार्शनिक स्वर प्रदान किया गया है। रचनाकार का लक्ष्य
कृति में कुछ भी रहा किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह जीवन जो माटी का है, कर्म रूपी अग्नि से तपा कर ही उसे कीर्तिशेष बनाया जा सकता है। यह कर्म गुरु कृपा से सम्भव है अन्यथा अज्ञान में आकण्ठ डूबा प्राणी जीवन को माटी ही कर डालता है । 'माटी' जीवन है, शक्ति एवं ऊर्जा है, रस है और प्राणप्रदाता है। माटी माँ है, जिसके क्रोड में जन्म लेकर प्राणी बड़ा होकर कर्म करता है। माटी ही कर्मभूमि है । कर्म जिनसे मानव अपने जीवन को व्यवस्थित करता है । परिस्थितियाँ उसको कर्मतन्तु से बाँधती हैं। गुरु कृपा से ही उसके अक्षमतन्तु विनष्ट होते हैं, ज्ञान चक्षु खुलते हैं और शुभत्व से भरकर वह 'माटी की मौनता' को आनन्द के स्वर से भरता है । जीवन को अमरत्व की ओर ले जाने का सफल उपक्रम-सत्यान्वेषण जो अखण्ड आनन्द से मण्डित है वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' में क्रम पूर्ण होता है । यही जीवन की सार्थकता है। 'मूकमाटी' का दर्शन यही है ।
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'मूकमाटी' का सन्देश मानव कल्याण से सम्पृक्त है। धर्म, दर्शन, कर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म का पावन पंचामृत इस कालजयी कृति में उपलब्ध है । मानव अपने जीवन को सार्थक बनाने के निमित्त इन्हीं तत्त्वों को आत्मसात् करता है । जीवनरूपी घट को रसमय बनाने में इन्हीं तत्त्वों की अविस्मरणीय भूमिका होती है । कविप्रवर ने इस कृति में 'माटी' के माध्यम से जीवनसार की महत्ता प्रतिपादित की है । कृति अपने वर्ण्य विषय के अभिनव विधान के कारण 'मील का पत्थर' सिद्ध हुई है। शिल्प सौष्ठव की दृष्टि से भी इसमें नवीनता है । यह अवश्य है कि काव्य-शिल्प के निर्धारित मानक भले इसमें विद्यमान नहीं हैं किन्तु एक उच्चकोटि की रचना में इसकी चिन्ता अपेक्षित नहीं होती । वर्ण्य विषय का 'कैनवास' अति सुविस्तृत, तर्क सम्मत, रोचक तथा गम्भीरता से युक्त है । कथा प्रवाह में कहीं भी