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मूकमाटी-मीमांसा :: 113
चतुर्थ खण्ड में आहार दान की प्रक्रिया से सम्बद्ध अनेकानेक पक्ष स्थान पा गए हैं। आहार दान की प्रसन्नता, साधु की दृष्टि और धर्मोपदेश आदि का वर्णन है। मिट्टी के घड़े की इस महत्ता पर स्वर्ण कलश विक्षुब्ध होकर आतंकवाद आता है। गृहस्थ के घर पर उसका आक्रमण तो होता है किन्तु गृहस्थ की साधुता की आँच के समक्ष आतंक का स्वर्ण रूप बदल जाता है, उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। काश ! आज यदि आतंक का राजनैतिक आवेष्टन अपने हृदय की विशालता का परिचय देता । आधुनिकता की नव्य नब्ज़ पहचानकर सिद्ध कवि ने सामाजिक विसंगति का कारण ढूँढ़ते हुए जिस हृदय परिवर्तन का सन्देश दिया है, परम्परागत होकर भी दूसरे समाधान के अभाव में यह अपेक्षित है। इस काव्य का कथा-पक्ष विरल होकर भी जैसे औदात्य से सप्राण है, उसी प्रकार शब्द - साधना भी अनेक नई सिद्धियों से शोभित है । शब्दों के खण्ड-धातुओं से जिन माणिक्य मालाओं को चमकाने का प्रयास किया गया है, वह अब तक के साहित्य में विरल ही है। साधु लेखनी प्रवचन के पथ पर काव्य की हरियाली का साक्षात्कार कराती है।
इस विवेचित तथ्य के आधार पर यह कहने में संकोच नहीं है कि 'मूकमाटी' आधुनिक काव्य जगत् की एक अनुपम उपलब्धि है। आचार्य श्री विद्यासागर के तपःपूत व्यक्तित्व ने काव्य की यात्रा में कुछ ऐसे पड़ाव स्थलों का निर्माण किया है, जहाँ बुद्धि थोड़ी देर विराम पाती है और हृदय अपने लिए कुछ पाकर प्रसन्न होता है ।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस महाकाव्य के द्वारा हिन्दी में विचार काव्य की उस परम्परा को बल मिला है जो श्री सुमित्रानन्दन पन्त के उत्तरवर्ती काव्य में पाई जाती है । उत्तम काव्य प्रणयन के लिए आचार्यश्री को मेरी प्रणति ।
पृष्ठ ३३३-३३४
पराग-प्यासा भ्रमर- दल वह भ्रामरी-वृत्ति कही जाती सन्तों की !