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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 95 "जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है। अर्थ यह हुआ कि/ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है।” (पृ. ६४) यहाँ 'हिंसा छलती है' इस लाक्षणिक प्रयोग का सौन्दर्य अर्थ को वाच्य बना देने से विलीन हो गया है। इसी प्रकार 'कर पर कर दो', 'मर हम मरहम बनें' तथा 'मैं दो गला' वाक्य यद्यपि प्रहेलिकावत् हैं तथापि इनका अर्थ न खोला जाता तो व्यंजकता सुरक्षित रहती और काव्यत्व का कुछ आभास होता। किन्तु अर्थ खोल दिए जाने से व्यंजकता कूच कर गई है और विवेचन ने टीकाग्रन्थ का रूप ले लिया है। कर्णकटु अनुप्रास : कुछ स्थलों पर अनुप्रास कर्णकटु हो गया है 0 “पर-कामिनी, वह जननी हो,/पर-धन कंचन की गिट्टी भी मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में!/हाय रे !/समग्र संसार-सृष्टि में अब शिष्टता कहाँ है वह ?/अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र!" (पृ. २१२) "सुत-सन्तान की सुसुप्त शक्ति को/सचेत और/शत-प्रतिशत सशक्तसाकार करना होता है सत् संस्कारों से/सन्तों से यही श्रुति सुनी है।" (पृ. १४८) यहाँ सर्वत्र परुष वर्गों की अति आवृत्ति कानों को खटकती है। आवृत्ति सायास प्रतीत होती है, अनायास नहीं। इसी कारण कंचन के टुकड़े के लिए 'गिट्टी' शब्द का प्रयोग अनौचित्य दोष का जनक हो गया है। अप्रस्तुत-अनौचित्य : एक-दो जगह अप्रस्तुत विधान अनौचित्यपूर्ण है : __ "माँ की गहन-गोद में शिशु-सा राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर ।” (पृ. २३८) सूर्य को ग्रसने वाले राहु के काल-सम गाल को माँ की मृदु गोद का अप्रस्तुत विधान (उपमान) अत्यन्त अनुचित है "बोधि की चिड़िया वह/फुर्र क्यों न कर जायेगी ? क्रोध की बुढ़िया वह/गुर्र क्यों न कर जायेगी ?" (पृ. १२) क्रोध के लिए बुढ़िया शब्द के प्रयोग से क्रोध भी बूढ़ा-सा बलहीन और अकिंचित्कर प्रतीत होने लगता है। 'क्रोध का विषधर भी फन क्यों न उठाएगा ?' कहा जाता तो क्रोध की करालता तुरन्त मन में कौंध जाती । इसके अतिरिक्त बुढ़िया कभी गुर्राती नहीं है, बड़बड़ाती है। केवल वर्ण-साम्य के लिए ऐसे प्रयोग काव्यत्व के विघातक हैं। "निशा का अवसान हो रहा है/उषा की अब शान हो रही है।” (पृ. १) यहाँ उषा का अब गान हो रहा है' यह प्रयोग प्रसंगानुकूल तथा काव्यात्मक होता। निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत कृति एक गम्भीर विधागत अनौचित्य से ग्रस्त है । साध्यादि सम्बन्ध के अभाव में तथा अर्थ विशेष की व्यंजना के प्रयोजन बिना तिर्यंचों और जड़ पदार्थों पर जैनाचार्यों और जैन तत्त्वज्ञानियों के व्यक्तित्व का आरोप सम्पूर्ण कथन को असंगत बना देता है । “मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने चोपचार: प्रवर्तते"- इस न्यायशास्त्रीय एवं काव्यशास्त्रीय नियम का यहाँ ध्यान नहीं रखा गया।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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