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94 :: मूकमाटी-मीमांसा
"...मानव-खून/ खूब उबलने लगता है।" (पृ. १३१) ० "भृकुटियाँ टेढ़ी तन गईं।” (पृ. १३४)
“आँख की पुतलियाँ / लाल-लाल तेजाबी बन गईं।” (पृ. १३४) निम्न उद्धरणों में रेखांकित पद पुनरुक्त हुए हैं :
0 "...गाँठ-ग्रन्थि...(पृ. ६४); "परम आर्त पीड़ा है" (पृ. १२४); 0 “अन्त:करण-मन पर।"(पृ. १२५); "हलकी रक्तरंजिता लाल क्यों है ?"
(पृ. १२७) 0 "रुद्रता विकृति है विकार ।” (पृ. १३५) निष्प्रयोजन पुनरुक्ति नवीन अर्थ की प्रतिपादक न होने से नीरसता उत्पन्न करती है। इसलिए उसे काव्य-दोष माना गया है । काव्य का प्रत्येक शब्द नवीन अर्थ का वाहक होना चाहिए। कहीं पूरा वाक्य ही पुनरावृत्त हुआ है :
“कुम्भ के रूप में ढलती है/कुम्भाकार धरती है।" (पृ. १६४) यहाँ द्वितीय वाक्य (कुम्भ का आकार धारण करती है) प्रथम की पुनरावृत्ति है। क्वचित् मात्र हास्य के लिए अप्रासंगिक वाक्य भी जोड़ दिए गए हैं :
“इसने कुम्भ को सुन्दर रूप दे/घोटम-घोट किया है ___ कुम्भ का गला न घोट दिया!" (पृ.१६५)
“इसीलिए तो धरती/सर्व-सहा कहलाती है/सर्व-स्वाहा नहीं।” (पृ. १९०) दोनों उदाहरणों में अन्तिम वाक्य असम्बद्ध हैं।
व्यंजकता का घात : शब्दों की पुनरुक्ति से अनेक जगह व्यंजकता भंग हो गई है :
0 "उत्तुंग-तम गगन चूमते/तरह-तरह के तरुवर ।” (पृ. ४२३)
0 “कठिनतम पाषाण ।” (पृ. १५९) 'गगन चूमते' शब्द से 'उत्तुंगतम' की तथा 'पाषाण' शब्द से 'कठिनतम' की व्यंजना अपने आप हो जाती है। इन शब्दों के प्रयोग से उक्त शब्दों का अर्थ खुल जाने से व्यंजकता भंग हो गई है और काव्यत्व समाप्त हो गया है।
कहीं मुहावरों और लाक्षणिक प्रयोगों के अर्थस्पष्टीकरण द्वारा भी काव्य का प्राणभूत व्यंजकत्व नौ-दो-ग्यारह हो गया है :
"बिना गरजे/किसी पर बरसता भी नहीं
यानी/मायाचार से दूर रहता है सिंह ।” (पृ. १६९) यहाँ प्रथम वाक्य में प्रयुक्त मुहावरा दूसरे वाक्य में अर्थ खोल दिए जाने से व्यंजकत्व खोकर निष्प्राण हो गया है: