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'मूकमाटी': मानवता का अमर संगीत
प्रोफे. (डॉ.) सत्यरंजन बन्दोपाध्याय (बैनर्जी)
आचार्य मुनि श्री विद्यासागर द्वारा रचित 'मूकमाटी' एक आधुनिक महाकाव्य है। आचार्य श्री विद्यासागर एक दिगम्बर जैन मुनि हैं । 'मूकमाटी' लगभग ५०० पृष्ठों का एक हिन्दी महाकाव्य है । आचार्य विद्यासागर अनेक ग्रन्थों के रचयिता हैं किन्तु 'मूकमाटी' ने उनकी समस्त रचनाओं में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। मुनिश्री हिन्दी साहित्य विशेष पारदर्शी एवं एक विज्ञ समालोचक भी हैं ।
यह महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' है यानी मृत्तिका को परिशुद्ध करके उसमें से मंगल भावना का उदय । यह भाव उन्होंने एक उपमा की सहायता से परिस्फुरित किया है। कुम्भकार जैसे पात्र निर्माण के कार्य में मृत्तिका को परिशुद्ध करके मंगल घट की स्थापना करता है, तदनुरूप मनुष्य का कर्तव्य है कि कंकड़ के जैसे पाप, ताप, शोक, जरा, व्याधि इत्यादि दूर करके धरती की प्रकृति को परिशुद्ध करे । इस का ही नाम है 'वर्ण - लाभ ।' द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' नामक इस खण्ड का मूल वक्तव्य है -- 'साहित्य बोध का मूल्यांकन एवं संगीत की अन्तरंग प्रकृति का प्रतिपादन ।' तृतीय खण्ड है 'पुण्य का पालन : पाप- प्रक्षालन ।' इस खण्ड का मूल प्रतिपाद्य विषय है--' पुण्य अर्जन करना ।' मन-वचन एवं काय से मनुष्य का जीवन निर्मल होना वांछनीय है । निर्मल जीवन के माध्यम से शुभ कार्य का उदय होता है, मनुष्य में कल्याण करने की प्रवृत्ति आती है एवं उस कल्याण से पुण्य अर्जित होता है । पुण्य अर्जन के लिए काम, क्रोध, लोभ, माया इत्यादि पाप उत्पन्न करने वाली मनोवृत्तियों का दमन करना ही मनुष्य मात्र की कामना होनी आवश्यक है। चतुर्थ खण्ड है 'अग्नि की परीक्षा : चाँदीसी राख ।' यह खण्ड दीर्घ है एवं नाना कथाओं के द्वारा समृद्ध है । मनुष्य के आचार, व्यवहार एवं शुद्ध आहारादि के माध्यम से किस प्रकार पृथिवी पर शान्ति स्थापना की जाए, इसमें इसकी एक परिकल्पना है ।
इस काव्य की भाषा अपूर्व, छन्द अनवध्य, शब्दों का चयन एवं वयन झंकारमय है । विषय वस्तु के भावों की अतिशयता में काव्य महान् हो गया है। जहाँ भावों का गाम्भीर्य है, वहीं भाषा भी गुरु गम्भीर है। स्पष्ट, ऋजु वाक्य स्वछन्द हैं तो शब्दों में भी झंकार है। भाषा की मधुरता असाधारण है तो प्रसाद गुण अतुलनीय है। दुरूह दार्शनिक तत्त्वों में भी भाषा की सरल गति अव्याहत रही है। यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि इस महाकाव्य के माध्यम मुनि श्री विद्यासागर के मानसिक गुणों के समृद्धतर स्तर का अनुसन्धान मिलता है ।
'मूकमाटी' एक दार्शनिक महाकाव्य है जो मानवात्मा का अमर संगीत है। यह साधना एवं आत्मशुद्धि का एक सजीव प्रतिरूप है । तपस्या के द्वारा अर्जित जीवन दर्शन की एक अभूतपूर्व अनुभूति है । वेदना-व्यथा, शोक - ताप, जरा-मृत्युग्रस्त माटी की सहनशीलता मनुष्य लोक के लिए शिक्षा का विषय है । कवि की भाषा में जीवन के सुख-दु:ख, उत्थान-पतन, राग-द्वेष, क्रोध आदि त्याग के रूप में प्रकाशित हुआ है :
'जनम-मरण - जरा - जीर्णता/ जिन्हें छू नहीं सकते अ
. सप्त भयों से मुक्त, अभय निधान वे / निद्रा - तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं, . शोक से शून्य, सदा अशोक हैं।" (पृ. ३२६-३२७)
मुनि श्री विद्यासागर ने काव्य के माध्यम से जीवन दर्शन प्रकाशित किया है । आध्यात्मिक साधना के वे मार्गदर्शक हैं। इस महाकाव्य में सन्त कवि श्री विद्यासागर मुनि की असाधारण प्रज्ञा एवं काव्य प्रतिभा प्रकाशित हुई है। इस महाकाव्य के अध्ययन से लगता है जैसे कि सन्त कवि मनुष्य लोक की समस्याओं के समाधान लिए एक कल्पवृक्ष हैं । इस महाकाव्य के प्रचार-प्रसार की उत्तरोत्तर वृद्धि हो, ऐसी कामना करता हूँ ।
( बंगला भाषा से अनूदित - अनुवादक ब्रह्मचारी शान्ति कुमार जैन )
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