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________________ मानवता का महाकाव्य : 'मूकमाटी' प्रो.(डॉ.) आनन्द प्रकाश दीक्षित लोक-परलोक में उड़ान भरते-भरते कभी-कभी कवि की दृष्टि से उसके समीप की वस्तु भी वंचित रह जाती है। तत्त्वदर्शी उसे देख लेता है। मिट्टी ऐसा ही अपदार्थ-सा पदार्थ है, जिस पर बहुत कवियों की आँख नहीं ठहर पाई। तत्त्वदर्शी कवि कबीर ने उसे अवश्य देख लिया था। उनकी विद्रोही वाणी में मिट्टी की तड़प और कुम्हार के प्रति उसकी चेतावनी मुखर हो उठी : "माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रुदै मोय । इक दिन ऐसा होयगा, मैं रु,गी तोय ॥" उसी मूक मिट्टी की व्यथा सदियों बाद जैन तत्त्वदर्शी सन्त आचार्य श्री विद्यासागर की प्रतिभा का स्पर्श पा प्रबन्धकाव्य 'मूकमाटी' के रूप में मुखरित हुई है। तत्त्वज्ञानी प्रवचनकर्ता के रूप में आचार्यश्री को यह सुयोग सुलभ रहा है कि मुख्य लक्ष्य की सिद्धि पर आँख रखते हुए वे सहायक कथा वृत्तों के योग से सहृदय श्रोता की चेतना और उसके कौतुहल को जगाए रख सकें और शब्द कौशल के सहारे न केवल उसे चमत्कृत करें बल्कि कथ्य को मर्मग्राही और सम्प्रेष्य भी बनाए रखें । सर्गों की रूढ़ पद्धति को त्याग कर चार बड़े खण्डों में निबद्ध इस रूपक कथाकाव्य में उसी सहज कौशल के सहारे मिट्टी की संकर दशा से उसका शोधन, उसका कुम्हार द्वारा रौंदा जाना और कच्चा कलश तैयार करना, फिर कलश का पकना, सेठ के हाथों बिकना, सेठ के द्वारा आहार-दान दिया जाना, मंगल कलश की ऐसी प्रतिष्ठा देखकर स्वर्ण कलश के द्वारा आतंकवादी योजना का रचा जाना और अन्तत: सेठ के क्षमाभाव के कारण स्वर्ण कलश की आतंकवादी प्रवृत्तियों में परिवर्तन आने तक की कथा वर्णित है। स्पष्ट ही, कथा का पूर्ण गठन और विकास कल्पनाश्रित है, और कथा का कलेवर अत्यन्त संक्षिप्त । अन्यान्य जीवन प्रस संगों के अन्तर्गम्फन और अनभव बल से कथा एक ऐसे रागात्मक धरातल को प्राप्त कर लेती है कि जीवन के जटिल रहस्य बौद्धिक श्रम या व्यायाम कराए बिना ही आपसे-आप खुलने और पाठक के मन में पैठने लगते हैं। आश्चर्य नहीं, यदि पाठक को कहीं-कहीं सीधे गद्य की प्रतीति ही अधिक हो और काव्यत्व हाथ से छूटने-सा लगे, पर अपनी गहन अर्थवत्ता और उदात्तता के कारण पाठक पर से उसकी पकड़ नहीं छूटती । मुक्त छन्द और सामाजिक दायित्वबोध की सजगता के कारण नवीन काव्यरुचि को बनाए रखने में रचनाकार को कठिनाई नहीं हुई है। धर्म विशेष की विचारभूमि पर अंकुरित होकर भी तात्त्विक दृष्टि से एकता के कारण रचना संकुचित सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सार्वजनीन और साधारणीकृत भूमि को प्राप्त करती है। आचार्यश्री के सन्त रूप ने उनके कवि रूप को आतंकित नहीं किया है, बल्कि दोनों के सुखद संयोग ने एक ऐसी रचना सृष्टि को जन्म दिया है जिसमें जीवन और साहित्य की तात्त्विक पहचान के प्रसंग अपना सहयोग देते हैं और प्रसंगगत रूप से प्राकृतिक दृश्य विधान उसमें सौन्दर्य का रंग भरता है । शब्द कौतुक और अलंकरण की पद्धति उसमें चमत्कार का समावेश करती है। कई बार शब्दों को मनमानी रूप भंगिमा भी प्रदान कर दी गई है, किन्तु भाव एवं रस के प्रभाव में वे बहुत रोक-टोक पैदा नहीं करते । वैचारिकता भिन्न रसों के योग में स्निग्धता प्रदान करती है। लोक में पैर टिकाकर भी मुक्ति की मंगल यात्रा पर पदचारण करता हुआ यह काव्य अध्यात्म की ऊँचाइयाँ पार करता है। नियमबद्ध कृति के रूप में यह महाकाव्य की रूढ़ता का पालन न भी करता हो, पर उदात्त संकल्प की दृष्टि से यह मानवता का महाकाव्य कहा जाय तो अनुचित भी नहीं है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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