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30 :: मूकमाटी-मीमांसा
परस्पर उन्हें मिलाते ही/विकार उत्पन्न होता है -क्षीर फट जाता है पीर बन जाता है वह !/नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है, वरदान है ।
और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।” (पृ.४८-४९) माटी को भिगोने के लिए जल की आवश्यकता होती है। जल बालटी और रस्सी के माध्यम से, कुएँ से निकाला जाता है । रस्सी में पड़ी गाँठ को रसना और दाँत मिलकर दूर करते हैं । रसना रस्सी को उपदेश देती हुई कहती है :
"ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है और
निर्ग्रन्थ-दशा में ही/अहिंसा पलती है।" (पृ. ६४) जल के साथ बालटी में एक मछली भी आ जाती है। मानों वह मोक्ष यात्रा में निकली हो । बाहर आकर मछली माटी के चरणों में जा गिरती है । वह माटी से बोध एवं सल्लेखना की याचना करती है। माटी कहती है :
“सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! ...मिटती-काया में/मिलती-माया में/म्लान-मुखी और मुदित-मुखी
नहीं होना ही/सही सल्लेखना है...।" (पृ. ८७) तत्पश्चात् माटी कुम्भकार को निर्देश देती है कि मछली को सुरक्षापूर्वक कूप में पहुँचा दिया जाय । वैसा ही किया जाता है । कूप में एक ध्वनि गूंजती है :
"दयाविसुद्धो धम्मो।" (पृ. ८८) द्वितीय खण्ड-शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं
कुंकुम-सम माटी में निर्मल जल मिलाया जाता है । माटी प्रसन्न है । उसका रूखापन दूर हो गया है । उसमें चिकनाहट भर गई है। वहीं एक काँटा भी है, जिसका माथा माटी खोदते समय फट चुका था। वह शिल्पी से बदला लेना चाहता है । माटी उसे समझाती है :
"बदले का भाव वह दल-दल है/कि जिसमें/बड़े-बड़े बैल ही क्या,
बल-शाली गज-दल तक/बुरी तरह फंस जाते हैं।" (पृ. ९७) । - काँटा तब माटी से कहता है कि फूल और वह साथ-साथ खिलते हैं, पर यह कहाँ का न्याय है कि फूलों के प्रशस्ति के गीत गाए जाते हैं और शूलों को तिरस्कृत किया जाता है। 'मूकमाटी' का शूल कहता है :
"दिशा-सूचक यन्त्रों/और/समय-सूचक यन्त्रों-घड़ियों में काँटे का अस्तित्व क्यों ?/यह बात भी हम नहीं भूलें,/किघन-घमण्ड से भरे हुओं/की उद्दण्डता दूर करने
दण्ड-संहिता की व्यवस्था होती है ।" (पृ. १०४) इसी प्रसंग में कवि ने बोध और शोध की बात भी की है । वह लिखता है :
"बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं,