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________________ 'मूकमाटी' : एक अध्ययन डॉ. जगमोहन मिश्र 'मूकमाटी' एक महत्-काव्य है । महत् शब्द का प्रयोग मैं साभिप्राय कर रहा हूँ,क्योंकि महा शब्द का प्रयोग कर 'महाकाव्य' की पारम्परिक अवधारणा से 'मूकमाटी' को मैं दूर रखना चाहता हूँ । महाकाव्य के लक्षणों को परिगणित कर उनके आधार पर 'मूकमाटी' को परखना अथवा महाकाव्य के अवयवों के आधार पर 'मूकमाटी' का मूल्यांकन करना अथवा महाकाव्य के प्रकारों को निर्धारित कर 'मूकमाटी' की प्रकार-कोटि दर्शाना 'मूकमाटी' के साथ न्याय करना नहीं होगा। कृतिकार आचार्य विद्यासागर ने 'मूकमाटी' को मात्र कृति की संज्ञा दी है : “ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है"('मानस-तरंग', पृष्ठ xxIv)। आवरण पृष्ठ में 'मूकमाटी' के साथ महाकाव्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया । हाँ, भीतर के शीर्षक पृष्ठ पर कोष्ठक में 'मूकमाटी' के नीचे महाकाव्य अवश्य लिखा है, जिसे हम चाहें तो पढ़ें, चाहे न पढ़ें। परिमाण की दृष्टि से 'मूकमाटी' लगभग ५०० पृष्ठों का काव्य है । इन पृष्ठों में दार्शनिक सन्त की साधना मुखरित हो उठी है, उनकी आत्मा के संगीत हैं- ये पृष्ठ और हैं- उनकी दार्शनिक अनुभूति की अभिव्यक्ति । आचार्य विद्यासागर विचारक सन्त हैं। प्रकृति और पुरुष के सन्दर्भ में, जीवन और जगत् के सम्बन्ध में, आत्मा और परमात्मा के विषय में, स्व और पर के बारे में, व्यक्ति और समाज की दृष्टि से उन्होंने तिल-तिल जो कुछ सोचाविचारा है, गुना और बुना है, उसे मुट्ठी भर-भरकर बिखेरा है। 'मूकमाटी' को सन्त कवि ने चार खण्डों में विभक्त किया है, जो निम्न हैं खण्ड एक- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; खण्ड दो- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; खण्ड तीन- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन'; खण्ड चार- ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' प्रथम खण्ड-संकर नहीं : वर्ण-लाभ ___प्रथम खण्ड में कवि ने माटी की प्राथमिक दशा के परिशोधन की चर्चा की है, जहाँ माटी अपने हृदय की बात माँ धरती के सम्मुख करती हुई कहती है : "इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की/च्युति कब होगी ? बता दो, माँ...इसे !/...कुछ उपाय करो माँ !/खुद अपाय हरो माँ !"(पृ.५) कुम्भकार माटी का उद्धार करता है । वह माटी को मंगल घट का रूप देना चाहता है। पहले वह माटी को खोदता है, ताकि कूट-छानकर उसमें से कंकरों को हटा सके । माटी अभी वर्ण संकर है क्योंकि वह कंकर आदि बेमेल तत्त्वों से समन्वित है और उसे मौलिक स्वरूप तभी प्राप्त हो सकेगा जब वह उसमें आ मिले तत्त्वों से दूर हो सकेगी। कवि का कथन है: 0 "इस प्रसंग से/वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन् चाल-चरण, ढंग से है ।/यानी !/जिसे अपनाया है/उसे/जिसने अपनाया है उसके अनुरूप/अपने गुण-धर्म-/"रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा वरना/वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा!" (पृ. ४७-४८) "केवल/वर्ण-रंग की अपेक्षा/गाय का क्षीर भी धवल है आक का क्षीर भी धवल है/दोनों ऊपर से विमल हैं/परन्तु
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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