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दार्शनिक-वैचारिकता की सहज अभिव्यक्ति : 'मूकमाटी'
प्रो. (डॉ.) दिलीप सिंह
आज की बौद्धिकता सरल को जटिल बनाने की प्रक्रिया को ही प्रज्ञा का विस्तार मानती है । इस मान्यता के पीछे बौद्धिक वर्ग की सीमाएँ ही कार्य करती हैं। बिना आत्मसात् किए ज्ञान की अभिव्यक्ति का सहज हो पाना सम्भव भी नहीं है। 'मूकमाटी' महाकाव्य इस धरातल पर एक सुखद आश्चर्य की अनुभूति पाठक में जगाता है। इसमें जटिल दार्शनिकता का उद्घाटन सहजता के स्तर पर हुआ है । कथानक, सरल-सम्प्रेष्य भाषा, दृष्टान्त, रूपक, उपमाएँसभी अपने सघन रूप में सुरक्षित भी हैं और आचार्यजी ने इन्हें अभिव्यक्ति के धरातल पर जटिल होने से भी बचाए रक्खा है । यही कारण है कि 'मूकमाटी' को आद्यन्त पढ़ते जाइए और गहरे दार्शनिक विचार आपके मन में स्वत: उतरते जाते हैं- बिना किसी प्रयत्न या बौद्धिक 'द्राविडी प्राणायाम के ।
'काव्य' के दो अंगों की चर्चा सम्प्रति साहित्य शास्त्र करता है - कथ्य और अभिव्यक्ति । 'मूकमाटी' का कथ्य चार खण्डों में विभक्त है। इन चारों खण्डों में मूल-प्रसंग के साथ-साथ अनेक उप-प्रसंग उद्घाटित होते चलते हैं जो मूल-प्रसंग को प्रवाहमय और प्रभावशील बनाते हैं। 'मूकमाटी' का केन्द्रीय कथ्य हमें जीवन के प्रत्येक अंकुर से प्यार करने के लिए प्रेरित करता है । यह प्रेम अभिमान को तिरोहित करके ही उत्पन्न होता है । 'प्रेम के विस्तार' और 'अहं के त्याग' को 'मूकमाटी' की निम्नलिखित पंक्तियाँ कितनी सहजता से व्यक्त करती हैं :
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''ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/ 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है/ 'भी' वस्तु के भीतरी भाग को भी छूता है।
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(पृ. १७३)
ये पंक्तियाँ भारतीय चिन्तन में अन्तर्भुक्त 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की धारणा को भी पुष्ट करती हैं । ये धारणा पश्चिमी चिन्तन में कहाँ ?
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'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था ।” (पृ. १७३)
यह तो भारतीय संस्कृति का मूल मन्त्र ही है कि जिस भी कारण अभिमान आता है वह बन्धनकारक है । उसका आश्रय स्थान तो ' मैं' है । यह 'मैं' भक्ति में ही तिरोहित हो सकता है जहाँ नदी सागर में डूब रहती है और 'मैं' के स्थान पर 'सब' आ जाता है । भक्ति के इसी समर्पण की कामना आचार्यजी करते हैं :
"प्रभु से प्रार्थना है, कि / 'ही' से हीन हो जगत् यह
अभी हो या कभी भी हो / 'भी' से भेंट सभी को हो ।” (पृ. १७३)
यह कामना सभी के लिए है। अखिल विश्व के लिए। अपने अहं का समर्पण ही तो भक्ति है । समर्पण का अर्थ 'अहं' को मेट देना नहीं है । समर्पण का अर्थ है मनुष्य के अपने अस्तित्व की आत्मिक और नैतिक घोषणा । केवल वही व्यक्ति जो एक बार समर्पण की स्थिति से गुज़र चुका है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की घोषणा भी कर सकता है। 'मूकमाटी' का कवि यह घोषणा एकाधिक स्थलों पर करता है। समर्पण में संकोच, अधमनापन और अपने प्रकृतिगत अहं से लगा ही मनुष्य को 'स्वान्तः सुखाय' के तंग दायरे में सीमित करके उसे अविचारी और जड़ बनाता है । भारतीय दर्शन