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462 :: मूकमाटी-मीमांसा
जो पढ़े और पा जाए इसका महा-मर्म, निश्चित मानों, जागेंगे उसमें करुणाकर ||३||
करुणा होती साकार, मुखर होता चिन्तन, शब्दों के नए अर्थ नर्तित हो जाते हैं । अरे ! अनेकान्त और दर्शन के आयाम नवल, मानस पर पड़े कलुष सारे धो जाते हैं ॥४॥
चिन्तन, चरित्र, निर्वाण और मन-मन्थन के, हर द्वार खोलने आए श्री विद्यासागर । मानो तो देव, नहीं तो पत्थर है पत्थर, भवसागर पार लगाते श्री विद्यासागर ||५||
खुद की खातिर तो हम-तुम सब जी लेते हैं, यह महासन्त, जनरंजन खातिर जीता है । मानव मन पर हो गई 'मूकमाटी' चन्दन, गहरे डूबो तो कलियुग की यह गीता है ॥ ६ ॥
अर्थान्वेषणी दृष्टि जरा डालो तो तुम, विश्लेषण करके भावबोध पहचानो तो । दायित्वबोध यह महासृजन करवाता है, यह महावीर वरदान, इसे तुम जानो तो ॥७॥
इसका अध्ययन तो तीरथ का फलदायक है, अनुशीलन है, भवसागर पार लगे नैया । कलियुग के दर्दों की है दवा 'मूकमाटी', मानों तो देव, नहीं तो पत्थर है भैया ॥८॥
प्रासंगिक, अनुषंगिक, बहुतेरे चमत्कार, बीजाक्षर, मन्त्र, अंक, हर छटा निराली है । 'स्टार वार' तक पहुँची कवि की दिव्य दृष्टि, कविता के समीप व्यंजनों - मय, यह थाली है ||९||
अद्भुत सुख और सन्तोष मिलेगा अध्ययन से, इसको पढ़कर तुम मर्म, धर्म के जानोगे । 'शशि' के मन में विश्वास जगा है आज सखे ! तुम, सार 'मूकमाटी' का, खुद पहचानोगे ॥१०॥