SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 432 :: मूकमाटी-मीमांसा अथ का दर्शन असम्भव !/अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ. ३३) इन उक्तियों का प्रयोग कृति में प्रयुक्त विभिन्न पात्रों के माध्यम से स्वाभाविक रूप में किया गया है। इसमें रोचकता का ऐसा अंश है जिससे शुष्क एवं नीरस दर्शन का बोध हलका हो जाता है । माटी और मछली का संवाद इसी तारतम्य में द्रष्टव्य है । मछली के प्रश्न का उत्तर माटी देती है : "सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और असत् विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !"(पृ. ८३) शिल्पी और माटी के प्रसंग में आचार्यश्री ने संसार ९९ का चक्कर है'--यह उद्घोष करते हुए रोचक शैली में निष्ठा एवं श्रद्धा की विवेचना की है : "लब्ध-संख्या को परस्पर मिलाने से/९ की संख्या ही शेष रह जाती है।" (पृ. १६६) भावसाम्यता के लिए हमें गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों का स्मरण हो आता है : "राम नाम में प्रीति करूँ, छाँड़ि सकल व्यवहार । जैसे घटै न अंक नौ, नौ के लिखत पहार ॥" कृतिकार की चिन्तनधारा हमारे देश के जीवन पर आधुनिकता के प्रभाव को ऐसी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत करती है कि बात पाठक के हृदय में सीधे प्रवेश कर जाती है । एक उदाहरण प्रस्तुत है : “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) प्रस्तुत कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि एक जैन ऋषि द्वारा प्रणीत इस काव्य-रचना में आरम्भ से अन्त तक दार्शनिकता के गूढ़ चिन्तन का अविरल प्रवाह है किन्तु पारम्परिकता से युक्त, साम्प्रदायिक अवधारणा से शून्य है। इसमें कृतिकार के निजी धर्म या दर्शन का कहीं भी प्रचारात्मक पुट नहीं है। इस कृति में जिन दार्शनिक बिन्दुओं का विवेचन है वे सार्वजनीन और सर्व धर्म के आधार स्तम्भ हैं। इन बिन्दुओं में कठिन दर्शन, वैचारिक प्रदेय, सर्वहिताय और सर्वकल्याणकारी सन्देश का सशक्त प्रवाह है, जैसे : " 'स्व' को स्व के रूप में/'पर' को पर के रूप में/जानना ही सही ज्ञान है, और/ 'स्व' में रमण करना/सही ज्ञान का 'फल'।" (पृ.३७५) __यह सम्पूर्ण ग्रन्थ त्रिवेणी का प्रतिरूप है जिसमें गूढ दर्शन की अदृश्य सरस्वती है, विपुल ज्ञान की गंगा, मानवीय मूल्यों की गहन वेगमयी यमुना एक साथ प्रवाहित है। संक्षेप में, यह महान् काव्य ग्रन्थ हिन्दी साहित्य के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि है, जिसका प्रणेता हिन्दीतर भाषाभाषी है । वस्तुतः यह काव्य कृति मानवीय जीवन-मूल्यों एवं भारतीय संस्कृति के चिन्तनपरक निष्कर्षों का आधुनिक इतिहास है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy