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________________ महाकाव्य-परम्परा की अमर कृति 'मूकमाटी' में राष्ट्रीय एकता के स्वर डॉ. बारेलाल जैन जन, भूमि और संस्कृति मिलकर राष्ट्र की परिकल्पना करते हैं। राष्ट्र का अधिकांश स्वरूप भावात्मक है। जन सुरक्षित रहें, भूमि पवित्र रहे और संस्कृति भव्य एवं पावन रहे, यही राष्ट्रीय एकता है । यही राष्ट्र की सच्ची पूजा है। राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ है किसी देश के निवासियों में भावात्मक एकता का होना । आपस में प्रेम की भावना राष्ट्रीयता की जड़ों को मजबूत करती है। राष्ट्रीय एकता की तलाश हम ऐसे संक्रमण काल में कर रहे हैं जब दोगली और स्वच्छन्द राजनीति का बोलबाला है । सर्वत्र ही धनतन्त्र का साम्राज्य है तथा पदलिप्सा का घिनौना दौर है । जातीय संस्कृति में जहाँ हमने सार्थक समाधान खोजने का असफल प्रयास किया है, वहीं हमारी दूषित मनोवृत्तियों ने धर्म के विकृत रूप को लेकर मदान्धता के आगोश में सृष्टि की सर्वोत्तम इकाई मनुष्य और प्रकृति का दोहन करना शुरू कर दिया है । इससे चारों ओर कलह, शीतयुद्ध, गुमराह होने का शोर है । जान-माल की सुरक्षा पर भयंकर आतंक है । सिरफिरे और स्वार्थी असामाजिक तत्त्वों द्वारा पृथक् राज्य बनाने का क्रूर आन्दोलन होता है, जिससे आर्थिक एवं जनहानि के कारण सामूहिक विकास शून्य हो गया और सड़कों पर आ गया है । सत्याग्रही संयमी, अनुशासित और क्षमाशील व्यक्तित्व हाशिए पर चले गए हैं। स्वार्थी लोग शासन और सत्ता के केन्द्र में बस गए हैं जो सिर्फ झूठे, लेकिन मीठे भाषण देकर जन-शोषण में लगे हुए हैं। ऐसे क्षणों में राष्ट्रीय साहित्य की आवश्यकता एक पुनीत कर्म है, क्योंकि उसमें निहित एकता के सूत्र ही जन, भूमि, संस्कृति के स्वरूप को स्थिरता प्रदान कर सकते हैं। जो राजनीति सिर्फ पद और पैसे के लिए, स्वयं के लिए ऐश्वर्यशाली जीवन जीने के खातिर मानवता का गला तक घोंट देती है, उसे अब बदलना पड़ेगा। ऐसा समाजवाद लाना होगा जो वास्तव में आचार-विचार में पावनतम हो, जो विकास और विनम्रता के दरवाजे खोलता हो तथा सबके लिए समान अवसर और न्याय की बात करता हो। इसी तलाश में जो राष्ट्रीय साहित्यकार स्वतन्त्रता, समानता, सद्भाव, परस्पर सहयोग और शान्ति की सुरक्षा में अपने स्वरों की गति दे सके हैं, उनमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्राकुमारी चौहान आदि प्रमुख हैं । मध्ययुग के भक्त और कवियों में कबीर, दाद, नानक आदि के काव्य में राष्ट्रीय एकता, अखण्डता के स्वर सुनाई पड़ते हैं। आचार्य विद्यासागर वर्तमान समय के दिगम्बर जैनाचार्य हैं । वे कर्नाटक प्रान्त में अवस्थित बेलगाम जिले के सदलगा ग्राम के निकटवर्ती ग्राम 'चिक्कोड़ी' में १० अक्टूबर, १९४६ ई. को श्री मल्लप्पाजी अष्टगे तथा श्रीमती श्रीमतीजी अष्टगे के द्वितीय पुत्र के रूप में जन्म लेकर 'विद्याधर' के नाम से जाने गए। बाद में यह विराट् व्यक्तित्व अपने परम गुरुवर जैनाचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की चरण-रज में त्याग, तपस्या, साधना, संयम, अनुशासन, धैर्य, दया, क्षमा आदि गुणों को धारण करते हुए गुरुप्रसाद से सन्त-कवि आचार्य विद्यासागर बने। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानव में प्रेम और दया की भावना का अभाव होना है। प्रेम और दया से शून्य व्यक्ति पाषाण-हृदय हो जाता है और भावनात्मक एकता के स्वरूप में विकृति लाता है। और फिर एक खेल शुरू हो जाता है स्वार्थता, लिप्सा, आतंक का, अपने को प्रतिष्ठित करने का, दूसरे के अवमूल्यन का-जो विनाश की कगार तक ले जाता है । इसी सन्दर्भ को उकेरते हुए आचार्य विद्यासागरजी कहते हैं : "धरती के प्रति वैर-वैमनस्य-भाव/गुरुओं के प्रति गर्वीली दृष्टि
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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