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280 :: मूकमाटी-मीमांसा
“यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) इसी कारण शासनतन्त्र भी धनतन्त्र बन गया है, फलत: यहाँ निरपराधी ही पिटते हैं :
"प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें पीटते-पीटते टूटती हम।/इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ?
यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) इस युग में यदि कथंचित् न्याय मिल भी जाए तो इतनी देर से मिलता है कि वह न्याय नहीं, अन्यास-सा लगता
है
स्वर्ण के प्रति कवि का कथन है :
“परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम,/पूँजीवाद के अभेद्य
दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६) जीवन यूँ ही बिता देने के लिए नहीं है, पार लगाने के लिए है । यही उसकी सार्थकता है और अन्यों की तुलना में नयापन भी :
"जीवन का, न यापन ही/नयापन है/और/नयापन !" (पृ. ३८१) दहेज दिन-प्रति-दिन फैलती जा रही समस्या है। इसका कारण भी धन के प्रति अनुचित मोह और समाजमानस द्वारा उसे चरित्र से ज्यादा सम्मान देना है। इसीलिए :
"लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।" (पृ.३८६) वर्णव्यवस्था को जन्मजात मानकर जो हमारे समाज ने अभिशाप भोगा है, उसके शमन के लिए ही मानों आरक्षण द्वारा हम असवर्ण को ऊपर उठाना चाहते हैं, परन्तु सन्त कवि का स्पष्ट मत है :
"नीच को ऊपर उठाया जा सकता है,
उचितानुचित सम्पर्क से/सब में परिवर्तन सम्भव है।" (पृ. ३५७) परन्तु इस परिवर्तन के लिए केवल आर्थिक, शैक्षणिक आदि सहयोग मात्र से काम नहीं चलेगा। इस कार्य का सम्पन्न होना सात्त्विक संस्कार पर आधारित है।
इसमें आतंकवाद की समस्या को भी चित्रित किया गया है । आतंकवाद का जन्म अतिपोषण या अतिशोषण से होता है।
प्राणदण्ड देना भी एक तरह से अपराध है, क्योंकि उससे दण्डित होने वाले की उन्नति के अवसर समाप्त हो जाते हैं :
"क्रूर अपराधी को/क्रूरता से दण्डित करना भी
एक अपराध है,/न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।" (पृ. ४३१) समाज की परिभाषा उन्होंने इस प्रकार दी है :