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274 :: मूकमाटी-मीमांसा एक उदाहरण भी दूँ तो एक अलग से निबन्ध तैयार हो जायगा । अत: विस्तार भय से इसे यहीं छोड़ रहा हूँ।
उपसंहार
इस लेख में 'मूकमाटी' की सुगन्ध का शतांश भी नहीं है । अलंकारों से सजी, कथा-कहानी के रूप में रोचक प्रसंगों से मढ़ी, सजीव, चुटीले वार्तालापों की लड़ी, यह कृति, अपने आप में एक महान् कृति है । एक अनुपम उपहार है।
यह मुक्त छन्द में लिखी कविता का प्रथम महाकाव्य है । 'मूकमाटी' के प्रकाशन से उस प्रश्न का उत्तर तो पाठकों को व आलोचकों को मिल ही गया कि मुक्त छन्द में लिखा गया महाकाव्य कहाँ है ?
इस महाकाव्य को समझने-समझाने के लिए मूल कृति' से दुगने आकार की एक और पुस्तक की आवश्यकता है, जो 'मूकमाटी' पर लिखी जाए। इस कृति पर शोध प्रबन्ध या लघु शोध प्रबन्ध भी लिखे जाना चाहिए। साथ ही इसे बी. ए., एम.ए. की कक्षाओं में भी पढ़ाया जाना चाहिए, क्योंकि यह कृति भारतीय संस्कृति एवं उसकी मनीषा की वाहक है। यह कृति हमें अध्यात्म की ऊँचाइयों के दर्शन कराती है । मानव मात्र को समझने की बुद्धि देती है।
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला, मराठी, कन्नड़ आदि भाषाओं के ज्ञाता सन्त कवि आचार्य विद्यासागर ने 'मूकमाटी' लिख कर मानव मात्र पर उपकार किया है। जितनी सिद्धहस्तता से उन्होंने इसे लिखा, बहुत कम सांसारिक कवि ऐसा कर पाएंगे।
कृति को पढ़ते-पढ़ते स्व. जयशंकर प्रसाद की अविस्मरणीय कृति 'कामायनी' की याद आ जाती है, भगवती चरण वर्मा की 'चित्रलेखा' की याद आ जाती है, वृन्दावन लाल वर्मा की ‘मृगनयनी', यशपाल की 'दिव्या' और आचार्य चतुरसेन शास्त्री कृत 'आम्रपाली' की याद आ जाती है।
यह कृति सर्वथा पठनीय और संग्रहणीय है। इसे विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों तथा संस्थाओं में भी होनी चाहिए, क्योंकि इसके पढ़ने से शान्ति और अहिंसा की भावना में वृद्धि होगी, जिससे समाज में अमन-चैन का वातावरण पनपेगा ।
पृष्ठ १४५ किसी अय में बँध कर --- मुक्त नंगी रीत है।
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