________________
166 :: मूकमाटी-मीमांसा
"सब को छोड़कर/अपने आप में भावित होना ही
मोक्ष का धाम है।” (पृ. १०९-११०) तृतीय खण्ड का दिशा-बोध है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन--जिसमें मानव की यात्रा अभी शुरू नहीं हुई है ; शुरू होने वाली है । समंदर के द्वारा पृथिवी की समस्त निधियाँ चुरा कर स्वयं समृद्ध बनने की चित्त-वृत्ति से आक्रान्त पूँजीपति का प्रतीक है । समस्त हड़पने की रईस चित्तवृत्ति के कारण ही समंदर ने धरती को लूटने का निश्चय किया है। इसीलिए धरती धरा हो गई, न वह वसुंधरा है और न वसुधा । वह समंदर रत्नाकर बन गया और धरती के वैभव को ले गया:
"यह निन्द्य कर्म करके/जलधि ने जड़-धी का,
बुद्धि-हीनता का, परिचय दिया है ।"(पृ. १८९) धरती तो सर्व-सहा कहलाती है, सर्व-स्वाहा नहीं :
___ "और/सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में
सन्तों का पथ यही गाता है।" (पृ. १९०) सूर्य को समंदर का कार्य अच्छा नहीं लगा । चन्द्रमा तो समंदर के पक्ष में रह गया। सूर्य अन्याय का विरोध करने वाली प्रवृत्ति का प्रतीक है तो चन्द्र घूसखोर वृत्ति का प्रतीक है। सीप तो मुक्ति का प्रतीक है। प्रथम खण्ड के आरम्भ में जिस धृति-धारणी-धरा का उल्लेख हुआ है उसका संकेत इस तीसरे खण्ड में मिल जाता है । धृति-धारणी-धरा तो संस्कृति का प्रतीक है । संस्कृति धृति-धारिणी-धरा ही है । उसके कारण ही तो मुक्ति मिल जाती है :
"जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है ।/यही दया-धर्म है
यही जिया-कर्म है।" (पृ.१९३) (यहाँ 'जल' के स्थान पर 'जन' शब्द का प्रयोग कर पढ़ने से उसका अर्थ सानुकूल होकर सामाजिकता से सम्बन्ध जुड़ेगा।)
- प्रसंगवश नारी की विशेषताएँ बताई गई हैं। वह 'नारी' है अर्थात् न+अरि=नारी, वह आरी नहीं है, सो नारी है। महिला'- मह+ला महोत्सव लाने वाली, अथवा मही धरती के प्रति आस्था जगाने वाली। 'अबला' विगत और अनागत की आशाओं से हटाकर, अब आगत में, लालाने वाली है, अथवा अ+बला=न+बला=न+समस्या-संकट अर्थात् अबला=समस्या-शून्य-समाधान है । 'कुमारी' =कु+मा+री अर्थात् कु=पृथ्वी, मा लक्ष्मी, री देनेवाली यानी कुमारी धरा को सम्पदा देने वाली। 'स्त्री' = स्+त्री, स्=समशील संयम, त्री धर्म, अर्थ एवं काम अर्थात् स्त्री-धर्म, अर्थ, काम में समशील संयत बनाने वाली। 'सुता' =सु=अच्छाइयाँ, ता=भाव-धर्म को बतलाने का धर्म अर्थात् सुता=सुख-सुविधाओं की श्रोतस्विनी। 'दुहिता'=दु+हिता-दो तरफ से हित करने वाली अर्थात् अपना हित और पति का हित चाहने वाली । 'मातृ' =प्रमातृ=ज्ञाता।
कुम्भकार के आंगन में कुम्भों पर मुक्ता की वर्षा होती है । राजा के कानों में यह बात पहुँच जाती है । राजा उन्हें समेट कर ले जाने का प्रयत्न कराता है । तब आकाश में गर्जना होती है । अनर्थ-अनर्थ का नाद फैल जाता है। जबजब अन्याय फैलता है तब-तब ऐसा हो जाता है । इसलिए :