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104 :: मूकमाटी-मीमांसा
"दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है ।
...दया का विकास/मोक्ष है।” (पृ. ३७-३८) जीवन दर्शन : पापी से नहीं पाप से, पंकज से नहीं पंक से घृणा करो । नर से नारायण बनने के लिए लघुता त्यागकर गुरुता प्राप्त करना होती है । मनुष्य को निर्ग्रन्थ पथ का पथिक माना है तभी वह अहिंसा का अनुयायी हो सकता है। अँधकूप में पड़ी मछली की फरियाद मानों जीवन के अँधकूप में पड़े व्यक्ति की याचना है कि हंसरूपी ब्रह्म से उसे मिला दिया जाए। यहाँ यह भी संकेत है कि इस सम्पर्क में छोटी मछली को बड़ी मछली निगलती है। संसार में सहधर्मी-सहजाति में ही वैर- वैमनस्य होता है। वैज्ञानिक युग के छलावों और अवसरवादिता का संकेत कवि ने दिया है (पृ. ७३) । कथनी और करनी का भेद व्यक्ति को घुन की तरह खाए जा रहा है । साम्य-समता शब्द को कूप की मछली से निकलवाया है, जो समय की माँग है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' शब्दों के आधुनिकीकरण का मज़ाक उड़ाते हुए कहा है कि 'वसु' यानी धन द्रव्य और 'धा' यानी धारण करना-आज धन ही जिसका कुटुम्ब है, धन ही जिसका मुकुट है, ऐसे ही स्वार्थी संसार की
ओर संकेत किया गया है। कलियुग और सत्-युग की व्याख्या की गई है। प्रथम खण्ड में जीवन दर्शन स्वयं परिभाषित होता जाता है । कूप, बालटी, मछली, रस्सी, गाँठ, बोरी, शिल्पी आदि शब्दगत अध्यात्म और व्यक्ति की बात प्रतीकों से बड़े अनूठे ढंग से व्यक्त की हैं। आचार्य विद्यासागर की आधारशिला अनुभव ज्ञान की है, उसमें जीवन का प्रत्यक्ष दर्शन है । वह जीवन को परिस्थितियों की असंगतियों और विसंगतियों से भरपूर मानते हैं जिसमें सुख और सन्तोष की छाया भी नहीं है। कवि की चिन्तन धारा ऐसी दिशा में अग्रसर हुई है जिसमें उसने माया-मोह के शिलाखण्डों को तोड़ते हुए जीवन की सहज संवेदना की भूमि को उर्वर किया है और मानवता को महासागर की ओर जाने का अधिकाधिक वेग प्रदान किया है।
कवि ने दूसरे खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में साहित्यिक बोध को बहुआयामी रूप दिया है। इसमें शब्द-प्रयोग शब्द-साधना का सुन्दर रूप है :
___“कम बलवाले हो/कम्बलवाले होते हैं।” (पृ. ९२) पाश्चात्य सभ्यता को विभीषिका तथा भारतीय सभ्यता को कवि ने सुख-शान्ति की प्रवेशिका बताया है :
"पश्चिमी सभ्यता/...विनाश की लीला विभीषिका/घूरती रहती है सदा सदोदिता
...भारतीय संस्कृति है/सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।” (पृ. १०२-१०३) मोह और मोक्ष की साहित्यिक व्याख्या लक्षणा और व्यंजना द्वारा की है। सभी रसों की मौलिक व्याख्या की गई है। जीवन्त साहित्य की व्याख्या कवि ने इन शब्दों में की है :
“शान्ति का श्वास लेता/सार्थक जीवन ही/स्रष्टा है शाश्वत साहित्य का । इस साहित्य को/आँखें भी पढ़ सकती हैं/कान भी सुन सकते हैं
इस की सेवा हाथ भी कर सकते हैं/यह साहित्य जीवन्त है ना!" (पृ. १११) वीर रस की व्याख्या अनुपम ढंग से की गई है :
"वीर-रस के सेवन करने से/तुरन्त मानव-खून/खूब उबलने लगता है काबू में आता नहीं वह/दूसरों को शान्त करना तो दूर,