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100 :: मूकमाटी-मीमांसा
आस्था बलवती बनती है। प्रबल आस्थावान् साधक ही प्रशस्त मार्ग में अग्रसर होता हुआ यथार्थ ज्ञान-दर्शन के सम्बल से मुक्ति-लाभ के निकट पहुँच जाता है।
यहाँ काव्य में ममता तब समता में परिणत हो जाती है जब माँ धरती के सम्बोधन से आत्मरूप मिट्टी को प्रकृति-पुरुष के सम्मिलन, विकृति और कलुष का संकुचन, कर्मों का संश्लेषण और स्व-पर के विश्लेषण का स्पष्ट भान हो जाता है । गुरु की शरण सुखद होती है, उसमें पहुँचते ही भावों में नूतनता आती है। शिल्पी गुरु मिट्टी रूप आत्मा के कर्मरज की परत हटाता है। मिट्टी को सद्मार्ग रूप गदहे पर लादकर साधना क्षेत्र रूपी प्रयोगशाला में ला पटकता है। मिट्टी रूप आत्मा को विशुद्धकर कूपरूप स्वात्मा की गहराई से जलरूप ज्ञान के आहरणार्थ गुरु जैसे ही उलझन रूप रज्जुग्रन्थियों को खोलते कि उपसर्गों का सामना उसे करना पड़ता है। स्वयं स्थितप्रज्ञ, निर्ग्रन्थी गुरु मछली रूप एक अन्य भव्यात्मा को सल्लेखना के साथ समाधि दिलवाते हैं। मिट्टी रूप आत्मा साधना में मग्न हुआ ही था कि उस पर परीक्षाओं का आकाश टूट पड़ता है।
काव्य में वर्षा का मनोज्ञ वर्णन मिलता है । ऋतुओं के बहाने काव्य में जलधि का कोप, चन्द्र का अमर्ष, बदलियों का रूपनर्तन, बादलों की रोषपूर्ण गर्जना, राहु द्वारा सूर्यग्रहण रूप विभावों एवं उत्पातों, सूर्य, धरती, बड़वाग्नि, इन्द्रधनुष एवं प्रभंजन रूप भावों तथा सदाचार वृत्तियों का द्वन्द्वयुद्ध अत्यन्त रुचिकर बन पड़ा है। गुरु ज्ञानोन्नत आत्मा को तपाग्नि में तपाने के लिए अवा लगाता है । आग के लिए लकड़ियों को चुनता है । यहाँ अवा कर्मासव को रोकने और बद्धकर्मों को नष्ट करने के लिए संवर-निर्जरा वलयरूप है । अवागत प्रज्वलित अग्नि तप है, जिससे निर्जरा होती है। कुम्भ भी अग्नि में तप करता और कर्मक्षय कर अपने को मंगलमय बनाता है । गुरु सर्वज्ञाता हैं। वे अवा खोलते हैं। प्रबुद्ध आत्मरूप कुम्भ को देखकर प्रसन्न हैं । पुत्र कुम्भ की अभिलाषा है कि किन्हीं महान् तपस्वी सन्त के चरणों का सेवक बनूँ । चाह को राह मिल ही जाती है।
पुत्र कुम्भ को श्रावक रूप सेठ का घर मिला और समुचित सम्मान भी। आहार के लिए आए त्यागी साधु का सत्संग मिला । कुम्भ का अहोभाग्य देख स्वर्णकलश की ईर्ष्या भड़की, आतंकवाद का आक्रमण हुआ, सेठ का पलायन, नदी की बाढ़ का उपसर्ग, जलदेवता का सहयोग, नदी का पार किया जाना इत्यादि वर्णन काव्य में बड़े ही मनोरंजक बन पड़े हैं। पताका और प्रकरी रूप सम्पूर्ण कथा प्रसंग इतिवृत्तरूप सूत्र में बखूबी पिरोए गए हैं।
जैन योग साधना में एक साधक को चौदह श्रेणियों को पार व पूर्ण करना होती हैं। इन्हें 'गुणस्थान' के नाम से जाना जाता है । जीव के स्वभाव ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र का नाम 'गुण' है और इन गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के उत्कर्ष एवं अपकर्ष कृत स्वरूप विशेष का भेद 'गुणस्थान' कहलाता है । मिथ्यात्व का विनाश गुणस्थान का उत्कृष्ट सार है और तत्त्वज्ञान की युगपत् उपलब्धि है।
___ आत्मा के इस उत्कर्ष में अहिंसादि व्रतों के परिपालन के अलावा साधक पाँच समिति, दश धर्म, बारह वैराग्यपूर्ण भावनाओं एवं बाईस परीषहों पर विजय पाकर पाँच चारित्र एवं द्वादश तपों के द्वारा शुभाशुभ कर्मों के आवागमन को रोककर उत्तरोत्तर गुणस्थानों में प्रवीणता हासिल करता है। बारहवें गुणस्थान में कषायें निश्शेषत: नष्ट हो जाती हैं और उसे वीतरागपना हासिल हो जाता है । तेरहवें गुणस्थान में उस आत्मा के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों का निश्शेषत: क्षय हो जाता है और कैवल्य की उपलब्धि होने से आत्मा अत्यन्त ऋजु हो जाता है । यही उसकी सर्वज्ञत्व एवं विमुक्तावस्था है।
___अयोगकेवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान अनिर्वचनीय अलौकिक आनन्द की अवस्था है । यहाँ आत्मा एकमात्र अनन्तचतुष्टय यानी ज्ञान-दर्शन-सुख एवं वीर्य से सदैव सम्पन्न रहती है । काव्य की चरम परिणति भी लोकोत्तर