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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 23 करना चाहते हैं बल्कि परतन्त्र देशों को स्वतन्त्र करने में हम यथाशक्य मदद करते हैं। हमारे भारत की यही विदेश नीति रही है, इसका संकेत आचार्यश्री ने कुम्भ के मुख से कुछ पंक्तियाँ कहलाकर किया है : "यहाँ /बन्धन रुचता किसे ?/मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता तभी "तो""/किसी के भी बन्धन में/बँधना नहीं चाहता मैं, न ही किसी को/बाँधना चाहता हूँ।/जानते हम,/बाँधना भी तो बन्धन है ! तथापि/स्वच्छन्दता से स्वयं/बचना चाहता हूँ/बचता हूँ यथा-शक्य/और बचना चाहे हो, न हो/बचाना चाहता हूँ औरों को/बचाता हूँ यथा-शक्य । यहाँ/बन्धन रुचता किसे?/मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता।” (पृ. ४४२-४४३) ___ स्वतन्त्र देश में राजनीतिक दलों का होना तो आवश्यक होता है पर उनकी दलगत कुत्सित नीति राष्ट्र के लिए हानिकारक होती है, राष्ट्र-विघातक होती है । दल-बहुलता वस्तुत: शान्ति को नष्ट-भ्रष्ट करने वाली और स्वार्थ केन्द्रित होती है : "दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना!/जितने विचार, उतने प्रचार उतनी चाल-ढाल/हाला घुली जल-ता/क्लान्ति की जननी है ना! तभी तो/अतिवृष्टि का, अनावृष्टि का/और अकाल-वर्षा का समर्थन हो रहा यहाँ पर !/तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए/सब कुछ अनर्थ घट सकता है !" (पृ. १९७) स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए सही समाजवाद और सही सर्वोदयवाद का अवलम्बन आधारशिला मानी जा सकती है जिस पर प्रशस्त आचार-विचार मढ़े हों और जनकल्याण की बात खुदी हो । जहाँ न दम्भ हो, न राजसता, न स्वार्थ हो न मात्र नारेबाजी, न पत्थरों की मार हो न विलासिता हो। वहाँ हो अध्यात्मवाद से सिंचित पुरुषार्थवृत्ति और सदाशयता से भरी परोपकारिता (पृ. ४६१)। ___ कवि मात्र राष्ट्रीय चेतना से ही ओतप्रोत नहीं है । उसे अन्तरराष्ट्रीय स्थिति का भी पूरा आभास है । लगता है, 'मूकमाटी' लिखते समय (१९८४-८७ ई.) पंजाब का आतंकवाद और पाकिस्तान द्वारा उसका संचालन कवि के मानस को उद्वेलित कर देता है । इसीलिए तो वह कह उठता है वहाँ के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष जनरल जिया उल हक से, कि उसे सदाशय और समष्टि की बात सोचनी चाहिए। मिटने-मिटाने की बात उसके मुँह से शोभा नहीं देती : "परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में/बहुत हुआ, वह गलत हुआ। मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो/इतने सयाने हो !/जुटे हो प्रलय कराने विष से धुले हो तुम !/...सदय बनो!/अदय पर दया करो अभय बनो !/समय पर किया करो अभय की/अमृत-मय वृष्टि सदा सदा सदाशय दृष्टि/रे जिया, समष्टि जिया करो! जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ !” (पृ. १४९) राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्थिति पर चिन्तन करते हुए कवि ने अनेकान्तवाद को ऐसे अमोघ अस्त्र के रूप में यहाँ प्रस्थापित किया है जो पारस्परिक मन-मुटाव को दूर कर सौहार्दभाव को जन्म देता है और चतुर्मुखी विकास के गलियारे तय करता है । इसके लिए 'ही' और 'भी' की संस्कृति के अन्तर को समझकर 'भी' को आत्मसात् करना होगा। तभी
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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