SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: lxi 'चारित्र' में । फिर तीनों सम्मिलित रूप से मोक्ष में साधन हैं, उपाय हैं। इसी के साथ यह भी जानना चाहिए कि यदि 'मुक्त' पुरुष में 'चारित्र' है तो 'ज्ञान'आवश्यक है और 'ज्ञान' है तो 'दर्शन' की सत्ता अनिवार्य है । मतलब 'आस्था' के साथ 'ज्ञान'-पूर्वक किया गया आचरण' ही अभीष्ट फल पैदा करता है। ज्ञानहीन की क्रिया और क्रियाहीन का ज्ञान व्यर्थ है और ये दोनों व्यर्थ हैं-आस्थाहीन के। मोक्षमार्गी घट' जब 'मोक्ष' के लिए कथा के आरम्भ में ही अपनी गहरी अभीप्सा या संकल्प सच्चे दिल अथवा मुक्त हृदय से व्यक्त करता है तब अनुरूप प्रतिध्वनि महासत्ता धरती से निकलती है । वह सबसे पहले 'आस्था' अर्थात् 'सम्यग् दर्शन' की ही बात करती है। वह कहती है-'प्रति सत्ता में अपरिमेय सम्भावनाएँ होती हैं जो अनुरूप निमित्त पाकर चरितार्थ होती हैं।' 'सबसे पहले रहस्य में पड़ी इस गन्ध का अनुपान आस्था की नासा' से करना होगा' (पृ.७८); 'आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता हुआ साधक को साथी बन साथ देता है' (पृ. ९); 'साधना की अँगुलियाँ जब आस्था के तारों पर चलती हैं तभी सार्थक जीवन में स्वरातीत सरगम झरती है' (पृ. ९) । गम्भीर साधना की ज्वाला से जब घट की आत्मा का समग्र विकार क्षीण हो जाता है और सेठ का सेवक उस परिपक्व घट की परीक्षा करता है तब उसमें से 'सा-रे-ग-म-प-ध-नि' यानी 'सारे गम पद नहीं' का स्वर सुनाई पड़ता है, अर्थात् आत्मा का स्वभाव समस्त दुःखों से मुक्त है । वह नित्य निरतिशय आनन्द स्वरूप है, यह स्पष्ट हो जाता है। उसके समस्त बन्ध हेतु- मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- क्षीण हो चुके हैं। उसमें 'सम्यक् ज्ञान' का उदय हो चुका है। वह साधना के सभी गुणस्थानों पर आरूढ़ हो चुका है। जब तक साधक स्व-भाव में प्रतिष्ठित नहीं हो जाता तब तक आत्यन्तिक मुक्ति सम्भव नहीं है। जब साधनात्मक मन्थन से नवनीत दधि से बाहर आ गया. तब फिर उससे मिलकर सांकर्य की स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता। चतुर्थ खण्ड में घट के सभी आवरक कर्मों का क्षय हो चुका है, अत: वह सम्यक् ज्ञानी है । वह प्रमाण तथा नयों द्वारा सभी तत्त्वों- जीव, अजीव (धर्म, अधर्म, काल, आकाश) आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- का ज्ञान प्राप्त कर लेता है । इसके ज्ञान में संशय, विपर्यास तथा अनध्यवसाय नहीं होता । तत्त्वत: चारित्र आत्मा का स्वरूप ही है । अत: उसकी अभिव्यक्ति दर्शन और ज्ञानगत सम्यक्त्व से होती है। पंच महाव्रत इसी स्वभाव की अभिव्यक्ति के लिए हैं। सिद्धावस्था तक पहुँचने के लिए साधक को जिस नैतिक उन्नति के अनुसार आगे बढ़ना पड़ता है, वे ही मोक्षमार्ग के सोपान चतुर्दश गुणस्थान हैं। आलोच्य कृति के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ खण्डों की समस्त साधना की व्याख्या इनके आलोक में की जा सकती है। सम्यग् ज्ञानी से आचरण या चारित्र वैसे ही फूटता है जैसे पुष्प से गन्ध । मुक्त घट शरणागत सेठ परिवार की मुक्ति में स्वयं प्रवृत्त होता है । 'मोक्षशास्त्र' में कहा गया है कि कषाय, पाप और व्यसन आदि संसार के कारणों से विरक्त होना तथा देव पूजा, दान आदि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होना सम्यक् चारित्र है। कुम्भ कहता है : “ 'स्व' को स्व के रूप में/'पर' को पर के रूप में जानना ही सही ज्ञान है,/और/'स्व' में रमण करना सही ज्ञान का 'फल'।” (पृ. ३७५) आगे वह अपनी प्रकृति का परिचय देता हुआ झारी से कहता है : "किसी रंग-रोगन का मुझ पर प्रभाव नहीं,/सदा-सर्वथा एक-सी दशा है मेरी इसी का नाम तो समता है।” (पृ. ३७८)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy