SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ lx :: मूकमाटी-मीमांसा करुणा करने वाला और उसका पात्र बनने वाला, दोनों का मन घुलता है, दोनों कुछ अपूर्व अनुभव करते हैं: "पर इसे/सही सुख नहीं कह सकते हम।” (पृ. १५४) यह करुणा दुःख का आत्यन्तिक क्षय नहीं कर सकती। इसलिए 'करुणा' में दुःख का आत्यन्तिक क्षय करने वाले शान्त का अन्तर्भाव नहीं हो सकता । करुणा प्रभावित और प्रवाहित होती है। शान्त न प्रभावित होता है और न प्रवाहित । वह स्थिर है । रचयिता का ध्यान वर्णन करते समय प्रबोध पर अधिक रहता है। तभी रस का प्रसंग आने पर भी कहता है : "विषय को और विशद करना चाहूँगा।” (पृ. १५६) वात्सल्य रस करुणा अलग भाव है और वात्सल्य अलग । इसमें गुरुजन आश्रय होते हैं और शिशु आलम्बन । महासत्ता माँ आश्रय है यहाँ । करुणा की भाँति यहाँ भी द्वैत होता है - आश्रय-आलम्बन का । अद्वैत मौन रहता है। यह भी क्षणभंगुर भाव है । अतः स्थायी और अविनश्वर शान्त का उसमें भी अन्तर्भाव सम्भव नहीं । वात्सल्य और करुणा ये दोनों ही लौकिक भाव हैं। सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस है। ___ ऊपर रसों का अभिव्यंजन कम और वर्णन ही अधिक है, जिसमें रचयिता उनके संवेदनात्मक पक्ष को गौण रखकर शान्त को रसराज बताता हुआ वैचारिक पक्ष पर बल देता है । जिस प्रकार शास्त्रग्रन्थों में रस-सामग्री का वर्णन होता है, यहाँ बहुत कुछ वैसा ही है । कहीं-कहीं संवेदनात्मकता की भी छौंक है पर मूलत: झुकाव इस प्रतिपाद्य पर है कि शान्त अन्य रसों में अनन्तर्भुक्त तथा उनका उपमर्दी है । वह आत्मास्वाद रूप होने से और परसंसर्गज भावों से अलग है । घट, जिस साधक जीवात्मा का प्रतीक है उसमें शान्त रस और मोक्ष पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा ही रचयिता का लक्ष्य है। आश्रय में आरम्भ से ही नित्यानित्यविवेकजन्मा शम की प्रतिष्ठा है, वैभाविक सुख में वैराग्य है । एतदर्थ अपेक्षित सभी शास्त्रोक्त उपायों का सहारा लेता है, गुरु का मार्गनिर्देश पाता है। सभी प्रकार के कषाय अथवा विकारों का नाश करता है। यह बात पहले विस्तार से कही जा चुकी है कि शान्त की पार्यन्तिक स्थिति को वर्णन या व्यंजना में भी उतारना सम्भव नहीं, वह अनुभवैकगम्य है । उसकी उपायावस्था का ही वर्णन सम्भव है और वह हुआ है। और रसों की वासना सहृदय सामाजिक मात्र में है पर शान्त की या उसके स्थायी भाव (शम) की मुक्त में ही सम्भव है । इसके रसयिता परिगणित ही हैं। ऐसे प्रसंगों में समाधिस्थ हो जाते होंगे और फिर व्युत्थान में कुछ समय तक चित्त की प्रशान्तवाहिता रहती ही है। वैचारिक पक्ष 'मानस तरंग' में रचयिता कहता है : “ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है।" यही वैराग्य या निर्वेद नामक स्थायी भाव प्रकृत ग्रन्थ का अंगी रस है, यह बात पहले कही जा चुकी है। प्रयोजन की दृष्टि से मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थ ही इसका प्रतिपाद्य है। शास्त्र की दृष्टि से मोक्ष और काव्य की दृष्टि से शान्त रस इसका प्रतिपाद्य है, इसीलिए यह कृति शास्त्रकाव्य है। जैन प्रस्थान के इस शास्त्रकाव्य में काव्य के मूल उपादान संवेदना के घटक 'विचार' पक्ष का जहाँ तक सम्बन्ध है, रचयिता की मूल विचारधारा अपने प्रस्थान की होनी स्वाभाविक है । गन्तव्य (मोक्ष) के प्रति इस प्रस्थान में 'सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र' समुदित रूप से 'मोक्ष' का ‘मार्ग' है । इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष निष्पन्न नहीं होगा। पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर का उन्मेष होता है। 'दर्शन' 'ज्ञान' में कारण है और 'दर्शन' सहित 'ज्ञान'
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy