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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 477 खण्ड-दो रहा-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं।' माटी के अन्दर रहकर काँटा शिल्पी से बदला लेने निकला, माटी समझाती है, बदले का भाव दल-दल है, जिसमें बलशाली भी गज दल तक फँस जाते हैं - अनल है, यह भावना जो तन, चेतन, भव तक को जलाती है। शिल्पी घट पर ६३ की संख्या ६ और ३ सम्मुख अंकित कर, सिंह, श्वान, कछुआ, खरगोश अंकित करता, तो 'कर पर कर दो'- अंकित पंक्ति भविष्य की ओर संकेत करती 'मर हम, मरहम बनें' और 'मैं दो गला'- अनेक संकेत करती हैं। जनन-उत्पाद, मरण-व्यय और स्थिर-ध्रौव्य है, कुम्भ की नमी को सुखाने हेतु धूप में रख शिल्पी, आगामी जीवन का बीजारोपण की अभिव्यंजना करता है, जनन पाया तो मरण पाना ही है-अकाट्य नियम यही है। तृतीय खण्ड रहा-'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' अनेकानेक बाधाओं के पश्चात् नीलाकाश स्वच्छ नज़र आता है, सम्पूर्ण सृष्टि में नवीनता आती है, शिल्पी को कुम्भ ने सुनाया त्रैकालिक सत्य, उपसर्ग बिना स्वर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी। साधक अपनी साधना में लीन, अडिग-अविकल, मौन व समभाव से लक्ष्यप्राप्ति हेतु, प्रतिकूलताओं को सहयोगी मानता है, विषम परिस्थितियाँ ही तो उसकी कसौटी है ! चतुर्थ खण्ड रहा-'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख।' धरती की माटी पहले गोद में थी, आज धरती की छाती पर है, घट लेने सेवक को नगर सेठ ने शिल्पी के घर भेजा, उसने कुम्भ की परीक्षा कंकर से की। आतंक से भयभीत कुम्भ सहित सेठ परिवार ग्राम-नगरों को पार कर, पर्वत श्रेणियों से युक्त सघन वन में प्रविष्ट हुआ, कठिन परिस्थितियाँ पार कर, नदी के किनारे पहुँचा, त्याग, तपस्या के सुफल से भँवरदार धारा को पार किया। आतंकवाद पराजय का मुख ताकने लगा, नाव जलमग्न हो जाती है, आतंकवाद का अन्त हुआ ! शिल्पी, कुम्भ, कुम्भकार ने शिला पर विराजमान, वीतरागी साधु के दर्शन किए-जो अभय का आशीर्वाद देते हैं। बन्धन रूप तन-मन और वचन का मिटना मोक्ष है ! जिस प्रकार दूध से घी निकलता है, किन्तु घी को पुन: दूध रूप में बदलना सम्भव नहीं है, मूकमाटी यही निहारती है !
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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