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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 453 कुम्भ में भरा पायस उसे बताता है कि माटी में सृजन शक्ति है : "माटी में बोया गया बीज/समुचित अनिल-सलिल पा पोषक तत्त्वों से पुष्ट-पूरित/सहन गुणित हो फलता है।” (पृ. ३६५) स्फटिक की झारी भी कुम्भ के समतुल्य नहीं है। आतंकवाद के प्रहारों से बचते हुए अन्तत: पाषाण फलक पर बैठे साधु के चरणों में कुम्भ की यात्रा सम्पन्न होती है । अनेक संवादों और अनेक प्रतीक-चरित्रों के माध्यम से निष्कर्ष रूप में कहा गया है कि साधना से ही आत्मोपलब्धि सम्भव है। संवाद, दृष्टान्त और निष्कर्ष-सूत्र रूप में यही इस काव्य की कथन पद्धति है । बीच-बीच में शब्द-क्रीड़ा चलती रहती है। 'कला' में 'क' यानी आत्मा-सुख और 'ला' यानी लाना अर्थात् कला का अर्थ है-सुख देनेवाली। जिसका कोई अरि नहीं, वह 'नारी' और जो महोत्सव जीवन में लाती है, वह 'महिला' है। 'कुम्भकार' का अर्थ हैधरती का भाग्य-विधाता- 'कुं' माने धरती और 'भ' माने भाग्य । इस तरह की व्याख्याएँ सामान्य पाठकों और गम्भीर पाठकों को समान रूप से बाँधती हैं। लेकिन 'गदहा' आदि शब्दों की व्याख्या में केवल सामान्य पाठकों का मन रम सकता है। सूक्तियों का वैभव पूरे काव्य में बिखरा हुआ है और ये सभी जैन दर्शन की उपपत्तियों से प्रेरित और प्रमाणित हैं। "ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं" (पृ. २), "इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव !" (पृ.३३), "गम से यदि भीति हो/तो"सुनो/श्रम से प्रीति करो" (पृ. ३५५) आदि पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में पठनीय हैं । कवि ने यथास्थान लोकोक्तियों का समावेश कर अभिव्यंजना को ग्राह्य बनाया है, हालाँकि वह उन्हें सूक्तियों की संज्ञा (पृ.१४, पृ.१३५) देता है । बिम्ब ग्रहण कराने के लिए कवि विद्यासागर ने अप्रस्तुतों-प्रतीकों का बहुत सार्थक और सटीक उपयोग किया है। अधिकतर अप्रस्तुत सुपरिचित हैं अत: अर्थबोध में सुगमता होती है। “भाई को बहनसी' (पृ.१९), "ज्वालामुखी-सम" (पृ. १३१), "राजा की रानी यात्रा के समय/रनवास की ओर निहारती-सी!" (पृ.४२), “मराली-सी बनी" (पृ. २०८) आदि पद प्रसंग के अनुरूप और भावानुकूल हैं। लेकिन नौ के गणित की विशद चर्चा (पृ.१६६-१६७) चमत्कारपूर्ण होते हुए भी अधिक उपयुक्त नहीं लगती। इसी तरह कुछ तुकबंदियाँ हल्की हैं। जैसे 'फुर्र-गुर्र' (पृ.१२), मथन-वतन (पृ.१६) आदि । लेकिन ये छुटपुट असंगतियाँ काव्यकृति के महत्त्व को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हैं। . 'मूकमाटी' मात्र आध्यात्मिक संकेतों और उपदेशों का काव्य नहीं है। अपने समय और परिवेश के सन्दर्भ और समस्याएँ भी इसमें स्थान-स्थान पर झाँकती हैं और सिद्ध करती हैं कि जैन मुनि की रचना होते हुए भी समाज के स्तर पर घटित हो रहे संक्रमण से यह अलग-थलग नहीं है। "वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं" (पृ. १२३), "अर्थ को तुला बनाना/अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है"(पृ. १४२) और “जब तक जीवित है आतंकवाद/ शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह" (पृ. ४४१) आदि पंक्तियों में न केवल युग सत्य बोलता है, अपितु कवि का सकारात्मक सोच भी व्यक्त हुआ है। हालाँकि 'मूकमाटी' आज की हिन्दी कविता की मुख्यधारा के मेल में नहीं है, लेकिन अपनी वर्ण्य वस्तु से लेकर अभिव्यंजना तक में यह अपनी विशिष्टता का प्रमाण देती है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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