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________________ चिन्तन-प्रधान विशिष्ट काव्यकृति : 'मूकमाटी' डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' लगभग पाँच सौ पृष्ठों में निबद्ध चिन्तन-प्रधान काव्यकृति है। प्रस्तवन' में लक्ष्मीचन्द्र जैन का आग्रह है कि इसे 'महाकाव्य' माना जाए । उदात्त कथा, उदात्त चरित्र, उदात्त उद्देश्य आदि महाकाव्य की अनेक कसौटियों पर यह कृति न्यूनाधिक खरी उतरेगी । इसे एक नए किस्म का महाकाव्य माना जा सकता है । चूँकि इसमें जो कुछ घटित हुआ है, वह संवादों के माध्यम से व्यक्त हुआ है, अत: इसे 'संवाद काव्य' भी कहा जा सकता है । कवि ने इस कृति को चार खण्डों में विभक्त किया है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'। पहले खण्ड का कथानक बहुत क्षीण है । कुम्भकार 'मंगल घट' का निर्माण करने के लिए थोड़ी सी माटी ले आता है और वर्ण-संकर माटी से प्रतिकूल तत्त्वों को अलग कर उसका परिशोधन करता है । इस प्रसंग को कवि ने क्रमश: धरा-माटी संवाद, शिल्पी-माटी संवाद, शिल्पी-कंकर संवाद, माटी-कंकर संवाद, रसना-रस्सी संवाद, मछलीमछली संवाद और मछली-माटी संवाद के माध्यम से कहा है । संवादों का शिल्प अपनाने से किंचित् नाटकीयता की सृष्टि हुई है और इससे चिन्तन का बोझ थोड़ा-बहुत हल्का हुआ है । प्रत्येक संवाद कोई न कोई सन्देश या विचार-सूत्र पाठक के हाथों में थमा जाता है। धरा-माटी संवाद' में संगति का प्रभाव, आस्था का महत्त्व और साधना में स्खलन की सम्भावना आदि पर गम्भीर विचार-विमर्श हुआ है। इसे कवि की सफलता कहा जाना चाहिए कि वह गम्भीर बातों को भी परिचित दृष्टान्तों के माध्यम से सरलतापूर्वक व्यक्त कर सका है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ : "निरन्तर अभ्यास के बाद भी/स्खलन सम्भव है; प्रतिदिन-बरसों से/रोटी बनाता-खाता आया हो वह तथापि/पाक-शास्त्री की पहली रोटी/करड़ी क्यों बनती, बेटा !" (पृ. ११) पहले खण्ड के अन्त में माटी के कहने पर शिल्पी मछली को कुएँ में डाल आता है और 'दयाविसुद्धो धम्मो' की ध्वनि-प्रतिध्वनि के साथ खण्ड समाप्त हो जाता है। दूसरे खण्ड में कंटक-माटी संवाद' से कथा आगे बढ़ी है। शिल्पी फूली माटी को रौंद-रौंद कर स्निग्ध बनाता है। माटी के बाहुओं से वीर रस फूटता है और वीर रस के व्याज से कवि को रस चर्चा का सुयोग मिल जाता है । रस संवाद पर्याप्त नयापन लिए हुए है। कवि को वीर रस इसलिए वरेण्य नहीं है कि उससे शान्त माहौल खौलने लगता है । हास्य रस कषाय है, उसमें गम्भीरता-धीरता का अभाव है। रुद्रता विकृति है, अत: रौद्र रस काम्य नहीं है । काम के स्थान पर राम की चाहना शृंगार से विरत करती है । करुणा को सही सुख नहीं कह सकते हैं। अत: कवि की दृष्टि में 'शान्त रस' रसराज है : “सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है" (पृ. १६०)। तीसरे खण्ड में अपक्व कुम्भों पर मेघ मुक्ता की वर्षा होती है। राजा और उसकी मण्डली मुक्ता राशि को बटोरना चाहती है लेकिन आकाश से वर्जना का स्वर सुनाई देता है । कुम्भकार मुक्ता राशि को एकत्र करके राजा को समर्पित करता है। इस बीच प्राकृतिक प्रकोप शुरू होता है लेकिन बादलों से गिरे ओले और विद्युत्कण कुम्भ को क्षति पहुँचाने में समर्थ सिद्ध नहीं होते। चतुर्थ खण्ड आकार में सबसे बड़ा है। इसमें अवा में कुम्भ के पकाए जाने की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण है । स्वर्णकलश ईर्ष्यालु हो उठता है कि मिट्टी का घट इतना पावन और आदरणीय कैसे हो गया है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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