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________________ 442:: मूकमाटी-मीमांसा मायने में पुरुष की भीतरी कायरता है। इसीलिए उसे अकाय में रत होना होगा, तभी काय और कायरता - ये दोनों अन्त काल की गोद में अनन्त काल के लिए विलीन हो जाएँगी : "सुनो, सही सुनो / मनोयोग से ! / अकाय में रत हो जा । काय और कायरता / ये दोनों / अन्त काल की गोद में विलीन हों आगामी अनन्त काल के लिए !" (पृ. ९४ ) तन का बल, मन का बल, मन की छाँव में मान का पनपना और नमन के माध्यम से उसे विजित करना, बदले की भावना, परपीड़न, कामदेव का आयुध, पश्चिमी सभ्यता, घन घमण्ड, क्षमा, पाप, बोध, हित, शाश्वत साहित्य, विविध रसों की प्रकृतियाँ, मोह, मोक्ष, कवि, कर माँगता है कर, मौन, आस्था, निष्ठा, प्रतिष्ठा, पराकाष्ठा, तन-मन-वचन, पुरुष, पुरुषार्थ, अस्तित्व, करुणा, संसार, ९९ और ६३ का रहस्य, श्वान सिंह सभ्यता, ही - भी, एकान्त- अनेकान्त-दर्शन आदि जैसे शताधिक प्रासंगिक और गहन विषयों के रहस्य को प्रगीतात्मक उन्मेष में कवि की वाणी कभी शिल्पी के तप में तो कभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में स्पष्ट करती है । यह एक ऐसा कठिन प्रयास है जो एक महाकवि की सहज साधना द्वारा ही लब्ध हो सकता है । यहाँ हम आचार्य श्री विद्यासागर के कुछ अतिशय महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार प्रस्तुत कर 'मूकमाटी' की अतुलित मुखर प्रतिभा का उद्घाटन कर रहे हैं। समाजवाद के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है : " समाज का अर्थ होता है समूह / और / समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार है / जो सदाचार की नींव है। कुल मिलाकर अर्थ यह हुआ कि / प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचार वालों का / जीवन ही समाजवाद है । समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से / समाजवादी नहीं बनोगे ।" (पृ. ४६१ ) धन संग्रह, अपरिग्रह आदि के सन्दर्भ में कवि का कथन है : " अब धन-संग्रह नहीं, / जन-संग्रह करो! / और/लोभ के वशीभूत हो / अन्धाधुन्ध संकलित का/ समुचित वितरण करो / अन्यथा, / धनहीनों में / चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं।/ चोरी मत करो, चोरी मत करो / यह कहना केवल / धर्म का नाटक है / उपरिल सभ्यता.. उपचार !/चोर इतने पापी नहीं होते जितने कि / चोरों को पैदा करने वाले // तुम स्वयं चोर हो / चोरों को पालते हो / और / चोरों के जनक भी " (पृ. ४६७ - ४६८) - उद्धरण चिह्नों में अंकित उपर्युक्त पंक्तियाँ उनके काव्य का मूल अंश हैं। इनमें विचारों की धारावाहिकता ने गद्य-पद्य के भेद को भी समाप्त कर दिया है। पद्यात्मकता की औपचारिकता मात्र मुक्त छन्द के प्रवाह में निहित है । सत्यासत्य की विवेचना में भी उनकी इसी गद्य और पद्य से परे भावात्मक और विशेष कर हार्दिक दुखद संवेगों को ध्वनित करने वाली शैली के दर्शन होते हैं । यहाँ हम उनके द्वारा प्रयुक्त छन्द का मूल रूप प्रस्तुत कर रहे हैं : “सत्य का आत्म-समर्पण / और वह भी / असत्य के सामने ? / हे भगवन् ! यह कैसा काल आ गया, / क्या असत्य शासक बनेगा अब ? / क्या सत्य शासित होगा ? हाय रे जौहरी के हाट में/ आज हीरक-हार की हार ! / हाय रे !, काँच की चकाचौंध में मरी जा रही - / हीरे की झगझगाहट !" (पृ. ४६९ - ४७० ) भावाभिव्यक्ति की सहजता के साथ-साथ भाषाधिकार की असाधरणता ने आपकी काव्य-कला को अन्यतम बना दिया है । शब्द-क्रीड़ा तो आपके इस ग्रन्थ में जगह-जगह पर मिल जाती है । शब्दों में किंचित् परिवर्तन करके
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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