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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 441 उपयोगिता सब की है। दुख के बिना भी काम नहीं चलता और सुख के बिना भी । एक की उपस्थिति में दूसरे की अनुपस्थिति दुख का कारण बन जाती है। इसलिए मिट्टी का सन्देश है- सम्यक् ज्ञान रखो, सम्यक् बनो, सब का उपयोग करो, सब का भोग करो। भोजन के षट् रसों में मीठा के साथ-साथ चटनी का भी एक रस होता है। हाँ, सीमा का उल्लंघन ही दुख का हेतु है । अतः संयम ही जीवन का इष्ट है। जीवन कला के सम्यक् ज्ञाता बनने का सम्बोध ही मिट्टी का सन्देश है । शिल्पी को किसी ने नहीं देखा, उसकी प्रतीति होती है पर मिट्टी तो माँ है न ? उसका स्नेहिल संस्पर्श इस सारे जगत् और जीव संसार को प्रत्यक्षत: रोमांचित करता रहता है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि यह माटी कभी कुछ कहती नहीं, कभी कुछ माँगती नहीं, किसी के समक्ष हाथ नहीं पसारती । वह आत्म सन्तृप्त है और विनाश-निर्माण, उद्भव - विकास, हर्ष-विषाद सबसे परे यह आत्मस्वरूप है । वह समस्त विद्याओं का सागर है फिर भी वह निरी माटी है, सबके चरणों में निर्लिप्त भाव से पड़ी रहने वाली एक सामान्य जीवात्मा जैसी । अपने इसी रूप में वह सब आत्माओं में प्रशान्ति का प्रकाश भरती रहती है । अगर कोई उससे खेल-खिलौने और घरौंदे बनाता है तब भी वह मौन है, अगर कोई उसका उपयोग नहीं करता तब भी वह मूक है। वह मूलत: अव्ययी भाव है । वह यह भी नहीं कहती है कि मैं वह माटी हूँ जिसमें अन्ततः तुम्हें बार-बार मिलते रहना है। कबीर की माटी तो बड़बोली थी । वह, कुम्भकार से कहती थी कि तुम मुझे अपने पैरों से क्या रौंदते हो, एक दिन ऐसा भी होगा कि मैं तुम्हें रौंद डालूंगी। पर आचार्य विद्यासागर की 'मूकमाटी' की महागाथा तो शब्दातीत है, अनुभूति अगम्य है। वह एक जैन ऋषि के निर्मल मानस की सत्कृति है । वह मूक होकर भी मुखरा है, पर वह आत्म स्तवन नहीं करती । वह कान्ता - सम्मत उपदेश देती है । वह माँ की मर्यादा में बँधी है। ऋषि की तरह वह भी परम जैनी है अर्थात् उसने भी अपनी विविध इन्द्रियों के साथ-साथ मन का निग्रह कर लिया है । वह अवशा है । वह भौतिक इन्द्रियों से अतीत है । उस चिदम्बरा को देखने और उसके स्पन्दन सुनने के लिए दिव्य चक्षुओं के साथ-साथ दिव्य श्रोतेन्द्रियों की भी आवश्यकता है । शब्द उसका बोध कराने में असमर्थ हैं और यदि उसका बोध होता है तो वह उसका शोध नहीं है। वह शोध ही है । वह स्वयं को भी जानने का एक उपक्रम है । वह आत्म साक्षात्कार की ही एक प्रक्रिया है । जिस प्रकार कुंकुम - सम मृदु माटी में बीज एवं मात्रानुकूल निर्मल जल मिलकर नए प्राण पा जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी के पदों में जा अज्ञानी नव ज्ञान की प्राप्ति करता है । अस्थिरता को स्थिरता मिलती है एवं अचिर को चिरता । नित्य नूतन परिवर्तन का यही रहस्य है । यही 'मूकमाटी' का स्वानुभूत सत्य है । इस सन्दर्भ में कवि का कथन है : I " तन में चेतन का / चिरन्तन नर्तन है यह वह कौन सी आँखें हैं / किस की, कहाँ हैं जिन्हें सम्भव है / इस नर्तन का दर्शन यह ?" (पृ. ९० ) यह मानवीय काया तो जड़ की छाया है, माया है, जाया-सी लगती है यह । जो प्रकृति को छोड़, माँ को भूल, इस काया-जाया की ज्यादा चिन्ता करते हैं, प्रकृति से दूर हटते हैं, उनका जीवन विकारों और विकृतियों से भर जाता है । वस्तुत: पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है, जीवन का रहस्य और सार है। इस सन्दर्भ में आचार्यश्री ने लिखा है: " .... "काया तो काया है / जड़ की छाया-माया है / लगती है जाया-सी ।" (पृ.९२) “पुरुष प्रकृति से / यदि दूर होगा / निश्चित ही वह / विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है । और / अन्यत्र रमना हो / भ्रमना है / मोह है, संसार है।” (पृ. ९३) आचार्यश्री का यह भी कहना है कि वस्तुतः कामवृत्ति, काया में रत होने वाली तामसिकता है । यह सही O O
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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