SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 434 :: मूकमाटी-मीमांसा बिन्दु पर आधारित है । समाज, देश, राष्ट्र तथा अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में व्याप्त आतंकवाद की आधुनिक समस्या तथा उसका समाधान भी इस कृति में है। आतंकवाद जैसी भयंकर समस्या का समाधान क्षमा भाव ही है, यह कवि का मत है। 'मूकमाटी' में महाकाव्योचित विशेषताएँ स्पष्ट प्रतिबिम्बित होती हैं। यह चार खण्डों में वर्णित है । प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' का मूल अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति जाति, कुल के आधार पर ऊँच या नीच नहीं है बल्कि उसका बहुमूल्य सार्थक जीवन उसके गुणधर्मों पर निर्भर रहता है। अगर व्यक्ति को अच्छी संगति, अच्छा प्रदर्शक एवं सच्चा गुरु मिले, जो उसके व्यक्तित्व में से कमज़ोरियों का निवारण कर सके, तो वह पददलित व्यक्ति उच्च पद, समाज, देश और अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में सम्मान का अधिकारी बन सकता है। दूसरे खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' से यह भाव अभिव्यक्त होता है कि बिना शब्द अध्ययन व साहित्य अध्ययन के बोध की प्राप्ति असम्भव है और बिना बोध (ज्ञान) के शोध कार्य असम्भव है । आचार्यश्री ने साहित्य के नव रसों के स्वरूपों की व्याख्या की है। शृंगार रस की अत्यन्त मौलिक व्याख्या दृष्टिगोचर होती है । इस कथानक में तत्त्व दर्शन की झलक स्थान-स्थान पर अनायास ही उभर कर आई है । इस खण्ड के वर्णनों में व्यावहारिक भाषा का अनोखा चमत्कार है। तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' के अन्तर्गत पुण्य और पाप के प्रक्षालन से उत्पन्न होने वाली श्रेयस्कर और उपादेय उपलब्धियों की ओर संकेत किया गया है। कार्य के अनुसार पुण्य का उपार्जन मन, वचन एवं काय की निर्मलता से, शुभ कार्यों के सम्पादन से एवं लोक कल्याण की कामना से होता है । इस खण्ड में कुम्भकार एवं माटी की विकास कथा के माध्यम से पुण्य कर्म के सम्पादन से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि का चित्रण किया गया है। चौथे खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' के विचार निम्न छन्द से स्पष्ट हो जाते हैं : "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है,/किन्तु वह/सन्तोषी अवश्य बनता है। सही दिशा का प्रसाद ही/सही दशा का प्रासाद है ।" (पृ. ३५२) महाकाव्य में दो प्रकार के पात्र होते हैं- एक, जो चरित्र की अच्छाइयों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों, समस्याओं एवं अनेकता को दूर कर समाज को कल्याण के मार्ग पर ले जाते हैं और देश एवं समाज में सौहार्द, भाईचारा, एकता-समता की प्रतिष्ठा करते हैं। दूसरे, वे पात्र हैं जो समाज के विकास में बाधक हैं। वे अपनी समस्त क्षमता का प्रयोग समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए समाज का शोषण करते हैं, समाज के संगठन को विघटित करते हैं और गरीबों, दलितों व शोषितों पर जघन्य अपराध करते हैं। पात्र योजना की दृष्टि से इसमें दोनों ही कोटि के पात्र हैं । इस रचना के अधिकांश पात्र निर्जीव हैं जिन्हें कृतिकार ने अपनी कलात्मक प्रतिभा के द्वारा जीवन्तता प्रदान की है । इस रचना के दो पात्र अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं जिनकी कथा रचना में आदि से अन्त तक प्रवहमान रही है । प्रथम पात्र है माटी और दूसरा है कुम्भकार । कुम्भकार ने माटी जैसी तुच्छ, पद दलित, निरीह वस्तु को एक सार्थक मंगल घट के रूप में परिणत किया है। उसे कृति का नायक तथा उस मिट्टी को कृति की नायिका कहा जा सकता है । इसके अलावा अन्य अनेक पात्र हैं, जैसे- काँटा, स्वर्ण कलश, आतंकवादी, राजा, राजा के आदमी, साधु, सेठ, सेठ का सेवक आदि । ये सभी गौण पात्र नायक-नायिका के चरित्र के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार महाकाव्य के अनुरूप चरित्र चित्रण आचार्य विद्यासागर ने चित्रित किया है, जो उनके चरित्र-योजना-कौशल को दर्शाता है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy