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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xlv "यूँ ! कुम्भ ने भावना भायी / सो, 'भावना भव - नाशिनी' !” (पृ. ३०२ ) यहीं प्रतिपाद्य के समाप्त होने से ग्रन्थ को समाप्त हो जाना चाहिए, आगे क्यों? मैं समझता हूँ कि परिपूर्णता के चार चरण हैं- अधीति, बोध, आचरण और प्रचारण। आगे की कथा प्रचारण- लोक कल्याण है । सम्भव है इसलिए कथा आगे बढ़ाई गई है । अध्यात्म की यह यात्रा वृत्ताकार है । जहाँ से प्रस्थान हुआ था, वहीं वह पहुँचता है, पर परिवेश या भाव वह नहीं है । पहले वह बद्धावस्था में था, अब मुक्तावस्था में है। अब कषाय के न होने से भोग बन्ध का निमित्त नहीं बन रहा है । अब वह मिथ्यादृष्टि नहीं, सम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दृष्टि का भोग नई वासना पैदा नहीं करता । विपरीत इसके वह पूर्व कर्म को शान्त करता है और नूतन पैदा नहीं होने देता । मतलब यह कि सम्यग्दृष्टि का कर्मभोग निर्जरा ही नहीं, संवर का भी कारण बनता है । यह साधक की कर्मभोग से कर्मयोग तक की वृत्तात्मक यात्रा है, पर पहला भोग मिथ्यादृष्टि का था और दूसरा कर्मभोग सम्यग्दृष्टि का है। बालटी की मछली की यात्रा भी तो ऐसी ही वृत्ताकार यात्रा है। कूप से बालटी द्वारा बाहर आकर पुन: उसी बालटी से उसी कूप जल तक । अन्तर यही है न कि पूर्व भावना और परवर्ती भावना में अन्तर है । कथावस्तु के दो भेद - आधिकारिक और प्रासंगिक सम्प्रति, कथावस्तु की अन्य महाकाव्योचित विशेषताओं की ओर भी दृष्टिपात करना है । आधिकारिक कथा का संक्षेप ऊपर दिया जा चुका है । सम्प्रति, प्रासंगिक कथाओं की समीक्षा प्रसंग प्राप्त है । प्रासंगिक कथाओं में 'पताका' का लक्षण चौथे खण्ड में सेठ - प्रसंग पर घटित होता है और पुंखानुपुंख रूप से घटित होने वाली घटनाओं को 'प्रकरी' के अन्तर्गत ही लिया जा सकता है, जैसे कि प्रथम खण्ड मछली की कथा है। 'प्रासंगिक कथा' का लक्षण 'दशरूपक' कार धनंजय द्वारा इस प्रकार दिया गया है : “प्रासङ्गिकं परार्थस्य स्वार्थो यस्य प्रसङ्गगतः ।” ( १/१३, पृ.४ ) प्रासंगिक कथा वह होती है जो प्रवाह में आई हो मुख्य प्रयोजन की सिद्धि के लिए, परन्तु प्रसंगत: उसका प्रयोजन सम्पन्न हो गया हो । आलोच्य ग्रन्थ में आधिकारिक कथा घट की है। उसी प्रसंग से मछली का भी प्रसंग आ गया है और मुक्ति रूप अपना प्रयोजन भी सिद्ध हो गया है । सेठ की कथा लम्बी चलती है, अतः उसे पताका कथा कहा जा सकता है । 'दशरूपक' कार ने कहा है : " सानुबन्धं पताकाख्यं प्रकरी च प्रदेशभाक् ॥” (१/१३, पृ.४) चौथे खण्ड में अवा से बाहर कुम्भ के आते ही सेठ को स्वप्न आता है कि उसने अपने ही प्रांगण में हाथों में माटी का कुम्भ लिए महासन्त का स्वागत किया है। स्वप्न को धन्यवाद देता हुआ सेठ सेवक को कुम्भकार के पास कुम्भ लाने के लिए भेज देता है । इस प्रकार आधिकारिक कथा से प्रसंगत: सेठ जुड़ जाता है और इस खण्ड के अन्त तक दोनों कथाएँ साथसाथ चलती हैं। सेठ से कुम्भ को और कुम्भ से सेठ को सार्थकता प्राप्त होती है। कुम्भ का मूल प्रयोजन सेठ से सधता है। अत: उसकी स्थिति स्पष्टतः ही 'परार्थ' है, पर साथ ही प्रसंगतः उसका स्वार्थ भी सिद्ध हो जाता है । कुम्भ उसे भी अपने साथ भव सरिता का सन्तरण करा देता है। एक मुक्त दूसरे को भी मुक्त करा देता है। 'मानस' की आधिकारिक राम कथा में जो स्थान पताका नायक सुग्रीव का है, वही यहाँ सेठ का है । आलोच्य कृति में प्रासंगिक कथाएँ प्रथम खण्ड में 'मछली प्रसंग' और तृतीय खण्ड में 'मुक्तावृष्टि प्रसंग' स्वल्पदेशव्यापिनी घटनाएँ हैं । फलतः
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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