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'मूकमाटी' और भारतीय अध्यात्म के चरण : सिंहावलोकन
डॉ. (श्रीमती) मंजु अवस्थी जिस माटी से जीवन नि:सृत हुआ, उसी माटी में वह समा जाएगा, किन्तु माटी कितनी हमारे जीवन का अहं हिस्सा है, ये समझना आज हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । माटी, जिसे चरणों तले रौंदा जाता है, उसी माटी का एक सूक्ष्म कण यदि नेत्र में पड़ जाए तो नेत्र पीड़ा से कराह उठते हैं। 'मूकमाटी के कथ्य को उन तमाम भक्त कवियों के दायरे में रखा जा सकता है, जिनके श्रेष्ठ विचारों से हिन्दी साहित्य गौरवान्वित है।
माटी को कथा नायिका के रूप में चित्रित कर आचार्यश्री ने अपनी भाव प्रवणता के साथ-साथ जैन धर्म-दर्शन को रूपायित किया है। आचार्यश्री वचन पर नहीं, प्रवचन में विश्वास करते हैं। प्रवचन की सारगर्भिता इस बात से प्रेय होती है कि हम उसके कथ्य को आत्मसात् कर सकें । माटी, जो पैरों तले रौंदी जाती है, उसकी व्यथा को कौन समझेगा? जैनेन्द्रजी ने 'तत्सत्' कथा में जिस तरह सामान्य घास को और अज्ञेय ने हरी घास पर क्षण भर' में मूक घास को वाणी दी, उसी प्रकार सदियों से पीड़ित, दमित, दलित माटी को मुखरित किया है आचार्यश्री ने।
___माटी का बना ये शरीर माटी में ही मिल जाता है, तब आज माटी के महत्त्व को पहचानने की सर्वाधिक आवश्यकता है। नश्वर है यह शरीर । इसे शाश्वत बनाया जा सकता है - कैसे ? अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा । जिस तरह माटी का कुम्भ विभिन्न परीक्षाओं से गुज़रता हुआ एक ऐसा कलश बन जाता है, जिसमें जल भरकर अतिथि का स्वागत किया जाता है, जो दूसरों के हित के लिए, तृषित की तृषा बुझाने के काम में समर्पित होता है, उसी तरह यह माटी का शरीर भी परहित में तत्पर होना चाहिए। देहधारण करने का अर्थ ही होता है कि पर-कल्याण हेतु मानव धर्म में दीक्षित होना, किन्तु कितने लोग इस तथ्य को ग्रहण कर पाए हैं। जैन धर्म तो करतल भिक्षा-तरुतल वास' में विश्वास रखता है, और वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति परोपकार में निरत हो सकते हैं।
___'मूकमाटी' के कथ्य को चार सोपानों में विभाजित कर अनेक उद्धरणों के माध्यम से कवि ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। प्रथम सोपान के आरम्भिक अंश को पढ़ते ही महाकाव्य के आरम्भिक प्रकृति चित्र दृष्टिगोचर होते हैं। माटी की मूक पीड़ा, चरणों तले निरन्तर कुचली जाती माटी की कसकन, किसी से कह न पाने की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है आचार्यश्री ने । वास्तव में माटी की व्यथा कवि की व्यथा बन गई है। जननी की क्रोड़ में बैठी अबोध बालिका-सी माटी प्रश्न-पर-प्रश्न करती है, जिज्ञासाओं का अन्त नहीं है । धृति धारणी माँ धरा उसकी माँ है । अपने निश्छल वात्सल्य से सम्पूर्ण सृष्टि को आप्लावित करती है माँ । भोली जिज्ञासाओं को उसी माँ के समक्ष रखती है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/ अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !/सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !/इसकी पीड़ा अव्यक्ता है
व्यक्त किसके सम्मुख करूँ !" (पृ. ४) माटी की पीड़ा, आत्महीनता की भावना उसे पीड़ित कर रही है। वह आर्तभावना से पूछ बैठती है :
“इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की
च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ"इसे !" (पृ. ५) ये माटी कबीर की वाचाल माटी नहीं है, जो चीख-चीखकर शिल्पी से कहती है : “इक दिन ऐसा आयगा, जब मैं रौं, तोह।" किन्तु यह माटी निरीह भी नहीं है, क्योंकि उसे समाधान मिल जाता है :