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________________ 408 :: मूकमाटी-मीमांसा यह विनम्रता ही अहिंसा पथ की पहली शर्त है तथा क्षमा भाव के साथ संयुक्त होकर समस्त विश्व के कल्याण की कामना करती है : "खम्मामि, खमंतु मे-/...यहाँ कोई भी तो नहीं है संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) कवि ने शान्त रस को सभी रसों से श्रेष्ठ माना है और यही इस महाकाव्य का मुख्य रस है। कवि की मान्यता इन शब्दों में व्यक्त हुई है : "करुणा-रस जीवन का प्राण है/...वात्सल्य जीवन का त्राण है ...शान्त-रस जीवन का गान है/...संयम-रत धीमान को ही 'ओम्' बना देता है।” (पृ. १५९-१६०) कुम्भ पर उत्कीर्ण चिह्नों की विशद व्याख्या करता हुआ कवि कुम्भ के पकाने की समूची प्रक्रिया को साधक की तपस्या, मनुष्य के उदात्तीकरण की यात्रा बना देता है । अवा की अग्नि का कहना है : “अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक/किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, न ही भविष्य में मिलेगी।" (पृ. २७५) कुम्भ का अग्नि के प्रति समर्पण भी इसी साधना पथ का संकेतक है : "...मेरे दोषों को जलाओ !/मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जिलाना है।” (पृ. २७७) मिट्टी के कुम्भ के पकने के साथ ही आचार्य अपने महाकाव्य को समाप्त नहीं करते । कथा को अधिक स्पष्ट करते हुए वह इसे एक सेठ की कथा बना देते हैं। नगर सेठ अपने निवास पर महासन्त का स्वागत करते हैं। स्वर्णादि बहुमूल्य धातुओं से निर्मित कलशों की अपेक्षा मिट्टी के कलश का महत्त्व स्थापित होता है तथा यही कलश सेठ को सपरिवार लक्ष्य की प्राप्ति करवाता है । सेठ और कुम्भ की यह यात्रा कहीं 'पिलग्रिम्ज प्रॉग्रेस' की याद दिलाती है तो कहीं कामायनी और मनु के कैलाश-शिखर पहुँचने की दशा के चित्रण का आभास होने लगता है, पुन: कहीं श्री नरेश मेहता के ‘महाप्रस्थान' में पाण्डवों की अन्तिम यात्रा की अनुभूति पाठक को घेरने लगती है : "सबसे आगे कुम्भ है/मान-दम्भ से मुक्त,.... छा जावे सुख-छाँव,/सबके सब टलें-/अमंगल-भाव ।” (पृ. ४७८) कवि प्राय: काव्य जगत् से दर्शन और चिन्तन की वीथियों में चला जाता है किन्तु चिन्तक मन भाव का स्पर्श नहीं छोड़ पाता और यही विशेषता इस ग्रन्थ को धार्मिक-दार्शनिक ग्रन्थ की अपेक्षा एक काव्य ग्रन्थ बनाती है। चिन्तन और दर्शन को कलात्मक सौन्दर्य से युक्त करना ही काव्य का उच्चतम उद्देश्य है और इस उद्देश्य में 'मूकमाटी' का कवि पूर्णत: सफल हुआ है। ['प्रकर' (मासिक), नई दिल्ली, जनवरी, १९९२]
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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