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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 397 सांसारिक क्रियाकलापों से कोई सरोकार नहीं रहता है और न ही जगत्-गति से किसी प्रकार को कोई लेना-देना ईश्वर वश की बात है । मनुष्य मुक्तावस्था में ईश्वरत्व पा लेता है और परम पद पाकर भला वह संसार से वास्ता ही क्या और क्यों रखेगा ? जिसे वह त्याग कर आया है, उसे फिर पाने का औचित्य ही क्या ? वह तो निराकार, निर्विकार होकर इस लोक से परे हो जाता है। जगत् की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्यश्री का कहना है वह चाहे चेतन हो या अचेतन, बिना किसी कारण के उत्पत्ति सम्भव नहीं होती है । एक उपादान और दूसरा निमित्त अर्थात् निमित्त एवं उपादान का संयोग ही सृष्टि का नियामक है । जगत् का प्रत्येक कार्य व्यापार भी इन्हीं दो कारणों से संचालित होता है। माटी अगर अपावन है तो उसे पावन और उपयोगी बना कर नए रूप में गढ़ने को यानी जगत् रचना ही सांख्यदर्शन का विपर्यय है । चार्वाक दर्शन से आचार्यश्री की कोई विशेष पटरी नहीं बैठती है । चार्वाक दर्शन कार्य-कारण को मान्यता नहीं देता । ज्ञान प्राप्ति के सम्बन्ध में चार्वाक दर्शन का विश्वास है केवल प्रत्यक्ष प्रमाण । वह अनुमान का बहिष्कार करता है । अत: ज्ञानेन्द्रियों और विषय ज्ञान आधार पर ज्ञान प्राप्त करना सम्भव 1 'मूकमाटी' में संशय ज्ञान और यथार्थ ज्ञान का विवेचन कर आचार्यश्री ने स्मृति ज्ञान और अनुभव ज्ञान की उपादेयता भी स्थान-स्थान पर की है। आचार्यश्री की विचारणा में सांख्य दर्शन भी प्रतिबिम्बित - सा होता है । सांख्य दर्शन के आधार पर जगत् की रचना प्रकृति से होती है, पुरुष निर्लेप रहता है। यही प्रकृति और पुरुष का संयोग जड़चेतन संयोग है । दूसरे अर्थ में यही एकात्मक है । आचार्यश्री के शब्दों में : 1 "प्रकृति और पुरुष के / सम्मिलन से / विकृति और कलुष के / संकुलन से भीतर ही भीतर / सूक्ष्म - तम / तीसरी वस्तु की / जो रचना होती है, दूरदर्शक यन्त्र से / दृष्ट नहीं होती वह, / समीचीन दूर-दृष्टि में उतर कर आती है।" (पृ. १५) पृथिवी के भीतर या बाहर की सत्ता को पुरुष की ज्ञानेन्द्रियों-बुद्धि और चैतन्य के अध्ययन से प्रकृति के रूप को परिवर्तित कर उसे पावन तो बनाया जा सकता है : “तपकर जो कर्म खपावे,/ सोई शिव-सुख दर्शावे ।” (छहढाला, पाँचवीं ढाल / ११) तप के बाह्य रूप हैं- अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन और काय क्लेश, तथा अन्तरंग रूप हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । इनका यथोचित समायोजन माटी के घट में कर दिया है शिल्पी ने । 'तत्त्वार्थ सूत्र' अध्याय ९ के सूत्र ३ में- 'तपसा निर्जरा च' और 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सातवें अधिकार में 'इच्छानिरोधस्तपः' कहा गया है। 'समयसार' ग्रन्थ ( गाथा १४ ) में 'स्वरूपविश्रान्तनिहतरंग - चैतन्यप्रतपनात् तपः ' कहा गया है। तप के उपरान्त सम्यक्त्व का बोध ही मनुष्य को मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन एक यथार्थवादी चिन्तन है । कर्म को पुद्गल रूप मानना तथा उसके आस्रव से ही आत्मा का बन्धन, फिर इस बन्धन से मुक्ति के लिए तप, निर्वाण और मोक्ष की आवश्यकता होती है । जन्म-जन्मान्तर में आत्मा के घटने-बढ़ने बावत आकार-प्रकार की कल्पना जैन दर्शन में एक यथार्थवादी दृष्टिकोण है ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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