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________________ 396 :: मूकमाटी-मीमांसा युवाशक्ति की दिशाहीनता पर एक दिशाबोध का अंश उसकी चेतना को सजग करता है : "युवा-युवतियों के हाथों में भी/इस्पात के ही कड़े मिलते हैं। क्या यही विज्ञान है?/क्या यही विकास है?/बस/सोना सो गया अब लोहा से लोहा लो"हा!" (पृ. ४१३) समाजवाद के लिए असंग्रह की अनिवार्यता पर कवि की टिप्पणी और सीताहरण की विवेचना लोक चेतना के सन्दर्भ में देखें: . “अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो अन्धाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो।" (पृ. ४६७) "रावण ने सीता का हरण किया था/तब सीता ने कहा था : यदि मैं/इतनी रूपवती नहीं होती/रावण का मन कलुषित नहीं होता और इस/रूप-लावण्य के लाभ में/मेरा ही कर्मोदय कारण है, यह जो/कर्म-बन्धन हुआ है/मेरे ही शुभाशुभ परिणामों से ! ऐसी दशा में रावण को ही/दोषी घोषित करना/अपने भविष्य-भाल को और दूषित करना है।" (पृ. ४६८-४६९) निर्जीव और सजीव पात्रों के बहाने अनगिन ऐसे प्रेरक और मर्मस्पर्शी संवाद इस ग्रन्थ में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं, जिन्हें पढ़कर मन में उत्प्रेरणाएँ होती हैं और उन्हें आचरण में उतारने की लालसा भी होती है तथा मन उन्हें आत्मसात् करने के लिए लालायित भी होता है । इन उद्धरणों की कितनी ही व्याख्या करूँ, कितने ही सन्दर्भ दूँ किन्तु ये कागज के बड़े-बड़े टुकड़े हमेशा ओछे ही पड़ते जाएँगे । 'मूकमाटी' की प्रांजलता, विचार-गाम्भीर्य हमारी लोक चेतना को उकसाने में, उसे बलवती बनाने में आचार्यश्री के ये विचार बिन्दु अमृत संजीवनी के पर्याय बन पड़ते हैं अनायास ही। जिनागम और आचार्य विद्यासागर : सन्तशिरोमणि कविवर श्री विद्यासागर जैन आचार्य-प्रणीत जिनागम के आध्यात्मिक चिन्तक और मनीषी हैं। सम्पूर्ण जैन दर्शन की आत्मीय आस्था ‘परमात्मा' में है। वैदिक दर्शन का ब्रह्मा या ईश्वर भी यही परमात्मा है । अत: जैन उपास्य के रूप में ईश्वर में पूर्ण विश्वास करते हैं किन्तु जगत्-नियन्ता के रूप में नहीं। यही कारण है कि आचार्य श्री विद्यासागर को जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहे जाने पर घोर आपत्ति होती है। जैन दर्शन नास्तिक दर्शन नहीं है, इसे उन्होंने सप्रमाण अपनी कृति 'मूकमाटी' में स्पष्ट किया है। सम्पूर्ण जिनागम में, जिन शासन के सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विवेचन है तो परमात्मा के रूप में ईश्वर के प्रति श्रद्धा भी प्रतिपादित है । ईश्वर के प्रति श्रद्धाभाव ही तो मोक्षमार्ग का पथ प्रशस्त करता है। श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्'- श्रद्धा के कारण सही दर्शन होता है, सत्य दर्शन से सत्य ज्ञान तथा सत्य आचरण होता है। मनुष्य का यही आचरण मोक्षदायक माना गया है। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के साथ श्रमण संस्कृति का स्वरूप, श्रमण चर्या, जीव-अजीव तत्त्वों का विश्लेषण, पुण्य-पाप, संवर-निर्जरा तत्त्व, गुरु और मोक्ष के स्वरूप को अभिव्यंजित किया है अपनी काव्य वाणी में। आचरण की शुचिता के आधार पर राग-द्वेष से मुक्त होकर संसारी मनुष्य भी ईश्वर बन सकता है साधना के बल पर, सांसारिक बन्धनों को तोड़कर । जैन दर्शन के अनुसार आचार्यश्री की एक और मान्यता है कि ईश्वर को
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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