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________________ 'मूकमाटी' : मानव जीवन का कल्पवृक्ष डॉ. एस. पी. मिश्र यह काव्य तप:पूत सन्त कवि विद्यासागर द्वारा विरचित है। इस काव्य को कवि ने चार खण्डों में विभक्त किया है। काव्य के ये चार अध्याय कहे जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैं - १. प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण - लाभ', २. द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं", ३. तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और ४. चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । पहला खण्ड माटी की प्राथमिक अवस्था का चित्रण करता है। माटी को शुद्ध करने की प्रक्रिया यहाँ शुरू होती है। माटी प्रथमतः संकरित होती है । वह पिण्ड रूप में कंकरों से मिली हुई प्राथमिक दशा का परिचय देती है । यहाँ कुम्भकार की कल्पना कार्य करती है। माटी को मंगल घट का रूप देने के लिए कुम्भकार को उसे परिष्कृत करना होता है और एक लम्बी प्रक्रिया के माध्यम से उसे परिपक्व करना होता है । इन परिस्थितियों का बड़ा ही सुन्दर चित्रण रचनाकार ने किया है। कुम्भकार की कल्पना रचनाकार की कल्पना है। संकरतामय माटी को रचनात्मक और सार्थक रूप देने के लिए सन्त कवि की सार्थक दृष्टि परिलक्षित होती है। वर्णलाभ देकर उसे सार्थकता प्रदान करना और मंगल घट के रूप में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया रचनाकार की सुन्दर अभिव्यंजनात्मक शैली का परिचय देती है। रचनाकार कुम्भकार की सार्थकता इसी में है कि माटी से कंकड़ों को निकालकर मौलिक रूप प्रदान करे । शुद्ध माटी ही शुद्ध मंगल घट का रूप ग्रहण कर सकती है। कुम्भकार को, माटी को मंगल घट का रूप देने के लिए अथक परिश्रम करना पड़ता है । बेमेल माटी को शुद्ध और सुडौल रूप देना पड़ता है, तभी माटी घट का रूप प्राप्त कर पाती है। रचनाकार ने यह कहना चाहा है कि तुच्छ माटी को स्वच्छ रूप देने के लिए कुम्भकार को स्वयं कितना तपना होता है । अग्नि रूपी तप में तपकर घट परिपक्व कंचन रूप धारण कर पाता है । कृती की कृति उसके रचना कौशल का ही परिणाम होती है। यही कवि का उद्देश्य है : " स्वयं शिल्पी / चालनी का चालक है । / वह / अपनी दयावती आँखों से नीचे उतरी / निरी माटी का / दरश करता है/ भाव- सहित हो । शुभ हाथों से / खरी माटी का / परस करता है / चाव- सहित हो । और / तन से, मन से / हरष करता है / घाव - रहित हो । अनायास फिर / वचन - विलास होता है / उसके मुख से, कि "ऋजुता की यह / परम दशा है / और / मृदुता की यह/ चरम यशा है / धन्य !” माटी का संशोधन हुआ, / माटी को सम्बोधन हुआ।” (पृ. ४४-४५) मृदु माटी से कुम्भकार का शिल्प निखर उठता है। शिल्पी कुम्भकार मृदु माटी को संशोधित रूप प्रदान कर उसे मृदुता के चरम उत्कर्ष पर पहुँचा देता है। माटी की भव्यता उसकी मृदुता है । कुम्भकार माटी को जो शालीनता और वैभव देता है वही उसका सृजन है। मृदु शब्दों में शिल्पी कह उठता है : : " मृदु माटी से / लघु जाति से/मेरा यह शिल्प / निखरता है / और खर-काठी से / गुरु जाति से / वह अविलम्ब / बिखरता है ।" (पृ. ४५) शिल्पी ने संकर दोष का वारण करके कंकर - कोष को हटा दिया। शिल्पी ने कंकरों को उनकी अस्थिरता का बोध
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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