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374 :: मूकमाटी-मीमांसा
कारण भी काव्य के कथा प्रवाह में रुकावटें आ गई हैं। लेकिन पृ. १४ पर ‘पालने' का सुन्दर प्रयोग किया है।
___शब्द की ध्वनिलय के आधार पर अन्य सार्थक-निरर्थक शब्दों के प्रयोगों की अधिकता है, जैसे मुड़नजुड़न(पृ. २९), कुम्भकार-स्वयंकार-उपचार (पृ. २८), सावरणा-साभरणा (पृ. ३०), किया-जिया (पृ. ३०), नमन-वमन (पृ. २८) आदि । इससे कहीं-कहीं अर्थ संगति नहीं बनती। लगता है कि अमुक शब्द की ध्वनि-लय के लिए दूसरा शब्द बलात् सार्थक बनाकर रखा गया है। जैसे कुम्भकार (शिल्पी) ने ओंकार को 'नमन' किया और उसने पहले से ही अहंकार का ‘वमन' किया है । यहाँ ‘नमन' की तुक-ताल मिलाने के लिए वमन' बिल्कुल ही असंगत है। 'वमन' के स्थान पर 'शमन' अथवा 'दमन' का प्रयोग उचित होता । ऐसे प्रयोगों से काव्य की सरसता भंग होती है।
जहाँ-जहाँ शब्दों की यह तुकात्मकता सहज, स्वाभाविक और प्रसंगानुकूल प्रस्तुत की गई है, वहाँ-वहाँ अर्थ के नए आयाम प्रकट हुए हैं। कवि की प्रतिभा का चमत्कार और शब्द के छिपे अर्थों का भी सुन्दर उद्घाटन हुआ है। जैसे-चेतन की 'सृजन-शीलता' के साथ 'द्रवण-शीलता' का प्रयोग (पृ.१६) और आज के जीवन सोच पर-'आस्था से रीता जीवन/यह चार्मिक वतन है' (पृ. १६) कहकर कवि ने आज की भौतिक और भोग्यवादी सभ्यता की वास्तविक पहचान स्थापित कर दी है। इसी प्रकार ग़ालिब का यह कथन कि 'दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना' और सन्त कवि का यह कथन- “अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और/इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव !/ ...पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है" (पृ.३३) सुन्दर प्रयोग बन पड़ा है। ऐसे ही “वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है"(पृ. ३८) में 'विलास' के साथ 'विकास' शब्द का प्रयोग अपनी पूरी अर्थवत्ता प्रकट करने में सफल है। इसी तरह ‘बोल की काया-ढोल की माया-पोल की छाया' (पृ. ११८-११९) के प्रयोगों में नई अर्थ संगति प्रकट होती है। सरिता और सागर के सम्बन्ध प्रसंग में 'समिति' और 'प्रमिति' का (पृ. ११९-१२०) सुन्दर शास्त्रीय प्रयोग किया गया है, साथ ही नए अर्थ का सन्धान भी होता है। देखिए- सरिता चंचला है और सागर स्थिर गम्भीर । सरिता की (चंचल जीवन का) सागर की ओर सरकन ही सरिता की 'समिति' है अर्थात् स्थायित्व से मिलन का संकेत है और 'निरखन' ही सरिता की प्रमिति' है अर्थात् जो स्थाई है, उस की ओर देखना (निरखन) प्रमिति' यानी यथार्थ सत्य ज्ञान है। यही 'प्रमिति आस्था है। आस्था वाली 'सक्रियता' ही 'निष्ठा' है । निष्ठा की महक ही प्रतिष्ठा' है। यही प्रतिष्ठा प्राणप्रतिष्ठा'कहलाती है । बहते-बहते प्रतिष्ठा का स्थिर हो जाना 'संस्था' और यही संस्था सच्चिदानन्द संस्था 'अव्यय अवस्था' (अर्थात् कभी क्षीण न होने वाली) है । यही 'आस्था'जीवन की नींव है। यही आस्था (सच्ची श्रद्धा) धर्म दष्टि है. मोक्ष पथ है।
इस प्रकार शब्दों के सुन्दर प्रयोग कवि की अपनी प्रातिभ शक्ति का परिचय तो देते ही हैं, साथ ही कवि की कल्पना और अभिव्यक्ति कौशल को भी रेखांकित करते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि शब्दों के ऐसे प्रयोगों ने काव्य की कथाधारा को अविच्छिन्न भले ही न रहने दिया हो परन्तु आचार्य कवि अपना ईप्सित प्रकट करने में सफल हो जाते हैं। वास्तव में अध्यात्म में आकण्ठ डूबे कवि की काव्य साधना, हितोपदेश प्रधान होती है । स्व-चिन्तन और अपने मत की पुष्टि के लिए ही शब्द दोहन सन्त कवि किया करते हैं। इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से भाषा सौन्दर्य आ नहीं पाता । यद्यपि 'मूकमाटी' के कथा प्रवाह के मध्य इसी प्रकार की उपदेशात्मकता प्राय: मुख्य पात्रों के द्वारा और कहीं-कहीं स्वयं कवि द्वारा प्रकट की गई है, फिर भी कवि ने अपने शब्द विधान द्वारा भाषा सौन्दर्य की रक्षा करने का भी भरसक प्रयत्न किया
है।
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