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________________ न और जैनाचार्य श्री विद्यासागर डॉ. निज़ामुद्दीन डॉ. बड़थ्वाल ने अपनी पुस्तक 'दि निर्गुण स्कूल ऑफ़ हिन्दी पोइट्री' में कहा है कि सभी युगों व देशों के निवृत्ति-मार्गियों का यह एक नियम रहा है कि वे स्त्री तथा धन की निन्दा करते आए हैं और इस प्रकार वैराग्य की उस भावना को जागृत करते रहे हैं जो कबीर को भी स्वीकार है। कबीर ने स्त्रियों को 'नरक का कुण्ड' बताया है। उन्हें स्त्री पर विश्वास नहीं है, यह बात खटकती है। यह दुःख की बात है कि उन्हें स्त्री में यौवन भावना ही दिखाई दी है । उनके आध्यात्मिक आदर्श की ओर से आँखें मूँद ली हैं, जिसे उन्होंने उस शाश्वत प्रेमी की भार्या बनकर अपनाने का विचार किया है । मध्ययुगीन कवियों ने नारी की पग-पग पर निन्दा की है। कबीर भी उससे अपना दामन नहीं बचा सके, उन्होंने भी नारी को 'विष की बेल', 'काली नागिन' कहा है। 'कनक' और 'कामिनी' को उन्होंने साधना मार्ग में बाधक माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर सिद्धों की नारी विषयक भावना से काफी प्रभावित थे, तभी तो उन्हें भी नारी विकृतियों का पुंज दिखलाई पड़ी, लेकिन जब हम कबीर काव्य में प्रयुक्त 'राम-की- बहुरिया' या 'बालक -कीजननी' के सन्दर्भ में नारी के व्यक्तित्व को देखते हैं तो वह निन्दनीय न होकर वन्दनीय बन जाता है। तुलसी ने भी नारी की निन्दा कम नहीं की, लेकिन जब उन्होंने उसका व्यक्तित्व राम - भक्ति से जोड़ दिया तो वह त्याज्य - निन्द्य न होकर वन्द्य हो गई। राम का जिससे नाता हो गया वह तुलसी की नज़रों में चढ़ गया। कबीर की नारी विषयक अवधारणा अपने युग का, तथा उनकी वैष्णव प्रकृति का प्रतिबिम्ब है । उनके मुख से यह भी निकला है-‘“जेती औरति मरदाँ कहियै, सब में रूप तुम्हारा ।” कबीर ने जिह्वा-आस्वादन के समान नारी का संग त्याज्य माना है और नारी को 'विष फल' के समान कहा है : " एक कनक अरु कामनी विषफल की ए उपाइ । देखे ही थैं विष चढ़े, खाए सूँ मरि जाइ ॥ " इसी प्रकार गुरु नानकदेव ने नारी को माया का प्रतीक घोषित किया है- "कंचन नारी मयि जीउ लुभतु है, मोहु मीठा माइआ ।” लेकिन गुरु नानकदेव की दाम्पत्य विषयक उक्तियों में नारी को जीवात्मा का प्रतीक भी माना गया है । ये प्रसंग अध्यात्म के रंग में डूबे हैं । आचार्य विद्यासागरजी ने नारी के विभिन्न रूपों को नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है और उसकी अनेकविध विशेषताओं को शब्दायित किया है। जैनधर्म में नारी को काम तथा विषय के सन्दर्भ में अवश्य अधिक सम्मानित नहीं समझा गया । स्त्री पर आसक्त होने वाला पुरुष अस्थिरात्मा होता है, उसे चित्त-समाधि प्राप्त नहीं हो सकती (उत्तरा. २२/४४), ऐसा भगवान् महावीर ने कहा है । आचार्य विद्यासागर एक शिल्पधर्मी, प्रयोगधर्मी कवि हैं । उन्होंने अपने प्रतीकात्मक महाकाव्य 'मूकमाटी' में नारी को कई रूपों में रेखांकित किया है और उनकी नारी विषयक अवधारणा पूर्णत: नूतन है, मौलिक है तथा पूर्वाग्रह / दुराग्रह से भी विमुक्त है । यहाँ नारी का उल्लेख अनेक रूपों में किया गया है: (१) नारी (२) महिला (३) अबला (४) कुमारी (५) स्त्री (६) सुता (७) दुहिता (८) माता (९) अंगना । नारी की विविध विशेषताओं में सबसे पहले 'भीरु स्वभाव वाली' है, लेकिन इस 'भीरुता' में आचार्य शुक्ल के अनुसार कामासक्त रसिकों को प्रिय लगने वाली नारी की भीरुता नहीं है, वह 'पाप - भीरुता' है। नारी पुरुष की अपेक्षा अधिक पाप-भीरु होती है, दूसरे शब्दों में हम उसे 'धर्म - भीरु' कह सकते हैं । पाप के भय से नारी कुमार्ग पर कदम
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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