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________________ 'मूकमाटी' : राष्ट्रीय चेतना का अन्त:स्वर ____ डॉ. आर. एल. एस. यादव 'मूकमाटी' एक ऐसा महाकाव्य है जो आज के उद्वेलित समाज के जीवन मूल्य, भौतिक तथा वैचारिक परिवेश को दार्शनिक पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करता है । यद्यपि इस काव्य में सुस्पष्ट कथानक नहीं है लेकिन यह एक दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें राष्ट्रीय चेतना के अन्त:स्वर एवं मानवीय जीवन दर्शन को प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। माटी के माध्यम से प्रकृति के विभिन्न अवयवों का सुमधुर वर्णन 'मूकमाटी' की अपनी विशेषता है । विभिन्न परिवेश में प्रकृति का उदात्त वर्णन उस नन्हें बालक के उद्गार के समान है जो प्रकृति के चमत्कार एवं लावण्य को देखकर चमत्कृत होता है पर उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की खोज में व्याकुल रहता है । 'मूकमाटी' की माटी निरीह है। वह अपने को पतिता, दलिता माने हुए है । उसकी व्यथा एवं वेदना मुखर है । इस माटी में इस धारा के करोड़ों अकिंचन लोग अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं। माटी की पीड़ा उनकी पीड़ा है। वे भी अपने नारकीय जीवन से माटी की भाँति मुक्ति को व्याकुल हैं। __ इस महाकाव्य के कथानक का केन्द्र बिन्दु मूकमाटी है । मूकमाटी का सम्पर्क कुम्हार से होता है । अनेक उपमानों द्वारा मूकमाटी अपनी संवेदना प्रकट करती है। दूसरा अध्याय 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में माटी के सृजनशील जीवन का प्रारम्भ होता है । कुम्हार माटी में पानी मिलाता है, उसमें प्राण का संचार करता है । शिल्पी गरीब है । उसके पास कम्बल नहीं है । सूती चादर है । शीतकाल में फिर भी उसे ठण्ड से कष्ट नहीं होता, क्योंकि : "कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं और/काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं/राम के दास होते हैं/ और/राम के पास सोते हैं।" (पृ.९२) इसमें पुरुष प्रकृति के सान्निध्य से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने का संकेत है। तृतीय अध्याय 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' से स्पष्ट है कि किन-किन पुण्य कार्यों से पाप का विनाश हो सकता है । धरती के वैभव को प्रलय के समय जल ने लूटा, इसलिए धरती धरा रह गई और जल सागर बन गया। उसने पृथ्वी की सम्पदा का हरण किया । वह निन्द्य कार्य था। कवि के अनुसार जलधि जड़ बन गया और सब कुछ सहते हुए धरती सर्वसहा बनी। चौथे अध्याय अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भ को आग में पकाना, नगर सेठ के सेवक द्वारा कुम्भ की परीक्षा करने का और उसे अपने साथ ले जाने आदि का विवरण है। यह एक दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें अनेक स्थानों पर अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद का प्रभाव स्पष्टत: परिलक्षित होता है। इसमें सुख और शान्ति को बाह्य नहीं बल्कि आन्तरिक वस्तु कहा गया है । यह अनुभूति से ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रवंचना का जीवन अर्थहीन है और संयम, समन्वय तथा समता से ही आन्तरिक सुख प्राप्त हो सकता है। पूरा महाकाव्य आध्यात्मिकता के विभिन्न उपादानों से परिपूर्ण है । इस कथानक के माध्यम से कवि ने जैन धर्म का, जिसे हम इस देश का मूल धर्म मानते हैं और जिसके सिद्धान्त आध्यात्मिकता, हिन्दू धर्म एवं अन्य अनेक धर्मों का मूल आधार हैं, का आध्यात्मिक विवरण इस महाकाव्य में स्थान-स्थान पर परिलक्षित होता है । इस महाकाव्य के सभी वर्णित विषय किसी न किसी तत्त्वदर्शन की मीमांसा करते हैं । इसी तरह जैन धर्म के तीन प्रमुख सोपान-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र का स्पष्ट प्रभाव इस महाकाव्य में परिलक्षित है । वैदिक मान्यताओं से अलग श्रमण संस्कृति का भी
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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