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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 347 महाकाव्य की भाषा शुद्ध हिन्दी है तथा वह इतनी सरल एवं प्रवाहमय है कि महाकाव्य को यदि मनन पूर्वक पढ़ा जाए तो फिर छोड़ने का मन नहीं मानता । प्रारम्भ में कुछ अटपटा अवश्य लगता है कि महाकवि क्या कहना चाहता है, लेकिन जैसे-जैसे उसे हम पढ़ते जाते हैं महाकाव्य का सार समझ में आने लगता है। मुझे स्वयं महाकाव्य को तीन बार पढ़ना पड़ा। महाकाव्य में सुभाषितों का खुलकर प्रयोग हुआ है । वे जीवन की वास्तविकता को उजागर करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त आचार्यश्री ने विलोम शब्दों के अर्थों पर विशेष प्रकाश डाला है। उससे यह महाकाव्य के साथ-साथ कोश ग्रन्थ भी बन गया है। मूलत: कन्नड़भाषी होते हुए भी हिन्दी साहित्य को ऐसा अपूर्व महाकाव्य देने के लिए सारा देश एवं विशेषतः हिन्दी भाषाभाषी करोड़ों जन आचार्यश्री के सैकड़ों वर्षों तक कृतज्ञ रहेंगे। आचार्यश्री इसी तरह काव्य सृजन करते रहें, इसी मंगल भावना के साथ उनका हम शत-शत अभिनन्दन करते हैं। REA. rifiN Minor WWW पृ. ३३१ लो, अतिधिकीअलिखुलपाती है ----- रसदार या लूखा-सूखा सब समा। . . . A
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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